साहित्य चक्र

03 January 2020

जब तक जीवन का अंत ना हो-


मेरे मन को छूने का हुनर वो जान गया है।
आँखों में छिपे अश्को को पहचान गया है।।

कोई रिश्ता नही है उससे लेकिन वो मेरे मन 
के हर कोने के छिपे दर्द को पहचान गया है।

हर एक रिश्ता जब मुझे हर वक्त छल रहा था।
वो मेरे दर्द को अपना मान मेरे साथ चल रहा था।।

ना उसने, ना कभी मैंने अपने रिश्तों को नाम दिया।
मैं जब भी जहाँ थका, उसने मेरा हाथ थाम लिया।।

वो कोई दोस्त नहीं, प्यार नही ना ही मेरा साया है।
जब छल रहा था काल मुझे, मैंने उसे पास पाया है।।

माना रिश्तों को एक नाम देना भी जरूरी हो जाता है।
कोई तो है,ये एहसास इन बातों को कहाँ मान पाता है।।

चलते रहना साथ यूँही, जब तक जीवन का अंत ना हो।
रिश्ता कोई बने ना बने, एहसासों का कभी अंत ना हो।।

                                             नीरज त्यागी

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