अक्सर जाती हूं उस जगह पर मैं,
जिसकी मिट्टी से मेरा नाता है,
होंगी हज़ार जगह घूमने के लिए,
लेकिन उस जगह से खूबसूरत कोई भी नहीं,
मेरे जन्म से उसका गहरा नाता है।।
उस घर की चार दीवारों में गुज़रा मेरा बचपन,
अक्सर मुझे याद आता है,
सारे लम्हें समेट कर ,
हर वो पल याद करती हूं,
बैठ अकेले मैं,
ख़यालो में फिर से अपना बचपन जीती हूं।
अपने बाबा संग खेलती थी मैं,
सबकी दुलारी थी,
अपने घर के आंगन की लक्ष्मी थी,
ऐसा मां मुझसे कहती थी।।
अक्सर जाती हूं उस जगह पर,
मेरी पाठशाला की जहां से शुरुवात हुई,
आज भी याद करती हूं,
कैसे मां खेल खेल में मुझे पढ़ाती थी,
छोटी सी थी फिर भी भाई संग
पाठशाला जाने की ज़िद करती थी।।
वो हर याद गहरी है,
जो मेरे दिल से जुड़ी है,
अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत की जहां से,
वो घर कैसे भूल जाऊ,
ये पक्के घर उन यादों को धुंधला नहीं कर सकते,
मुझसे मेरी यादें छीन नहीं सकते,
अक्सर जाती हूं मैं उस जगह पर,
जो मुझसे जुड़ी है,
मेरे अपनों से जुड़ी है।।
निहारिका चौधरी
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