आधे अधूरे 'दिसम्बर'
लम्हे लम्हे में बीते ,
जाने कितने दिनों का सफ़र,
कितने अपने छूटे पीछे,
कितने पराये बन गए अपने!
रँग रूप रिश्तों के ढलते रहे,
कुछ बने अज़ीब
तो कुछ साथ-साथ चलते रहे!
ज़ोर न था हवाओं पर हमारा,
रुख़ जिधर का था,
हम वहीं मुड़ते रहे!
मौसम ग़म औ खुशी के
तो कभी.....!
शिक़वों गिलों के बदलते रहे,
मुकम्मल होंगी इस बरस तो!
इतनी सी ख़्वाहिश में,
पूरे बरस को जीते रहे!
अधूरी रह गयीं ....!
अधूरी-सी ख्वाहिशें!
बरस एक बार फिर हुआ पूरा,
तुम अब भी न पूरे हुए "दिसंबर!"
वही रह गए
आधे -अधूरे "दिसंबर!"
सीमा चोपड़ा
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