साहित्य चक्र

12 April 2025

कविता- पुरुष





पुरुष वह नहीं जो वो दिखता है,
बल्कि  पुरुष  तो  वो  है जिसमें,
समाहित हैं  ना  जाने कितने ही,
अरमान, उम्मीदें  और ख्वाहिशें,
विचार,   सपने   और   उलझनें,
जो छुपा  लेता  है  अपने  सभी,
दुःख,    दर्द    और   तकलीफ़ें,
जिसे  घेरा  है  जिम्मेदारियों  ने,
पर नहीं दे पाता  ख़ुद पर ध्यान,
कर लेता  समझौता हालातों से,
उसका स्वभाव है  त्याग करना,
जो चट्टान के जैसे रहता अड़िग,
बेशक  वो  बाहर  से  कठोर  है,
लेकिन   उसके   हृदय   में  भी,
अंकुरित होते  हैं  प्रेम  के बीज़,
वो भी चाहता है आत्म सम्मान,
जो सहे बेरोजगारी के उलाहने,
जिसने लड़ना  सीखा  कष्टों से,
वो  साहसी  है  निडर  है  परंतु,
परिवार की  भी  उसे  फ़िक्र है!

प्रकृति  ने  ऐसे   साँचा  है  उसे,
जो  बिना  थके  जुटा  रहता  है,
कमाने में ताकि  दे  सके  ख़ुशी,
अपने परिवार को और सुरक्षित,
कर    सके     उनका    भविष्य,
अपने अरमानों को जेब में रख,
बन जाता  मुस्कुराने की वजह,
न्योछावर कर देता है सब कुछ,
ख़ामोश रहकर निभाये कर्तव्य,
नहीं बयां  कर  पाता  जज़्बात,
जिसके  अंदर  घुमड़ता  रहता,
भावनाओं  का  गहरा  समन्दर,
सब पीड़ा को ख़ुद में समेटे हुए,
करता   खुशियों  का   इंतज़ाम,
रहता तैयार हर चुनौती के लिए,
एक  पुत्र, भाई, पति, पिता की,
जिम्मेदारी  के  बोझ  तले  दबा,
वो सुकूँ भरी नींद  सोता नहीं है,
तनाव में भी  मन  रखता स्थिर,
क्योंकि पुरुष कभी रोता नहीं है।


                                            - आनन्द कुमार


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