साहित्य चक्र

12 April 2025

काम मैं, अब दिल से नहीं करता



मुद्दतें गुज़र भी गईं, और मैं अब बूढ़ा हो गया। 
बात क्या है कि यादें तेरी मेरे दिल से नहीं जातीं। 
बहुत मासूम हैं वो ज़ख्मी कर गया लहज़ा जिनका,मेरे दिल को,
मैं करता तो हूं गुफ्तगु उनसे मगर ये काम मैं अब दिल से नहीं करता।

नाराज़ हो गए सच सरे महफ़िल जो कह दिया हमने।
क्या करें मजबुर हैं, झूठ बोलने की आदत भी नहीं है,
रातों को नींद हमको कहां आती जनाब। 
रस्ता बड़ा कठिन है मागर चल रहे हैं हम। 
कभी कभी इंसान हमको बहुत खुश सा नज़र आता है।
दिल में उसके झांक के देखो तो टूटी हुई,
 कश्ती के सिवा कुछ नहीं मिलता।

मुद्दतें गुज़र भी गईं, और मैं अब बूढ़ा हो गया। 
बात क्या है कि यादें तेरी मेरे दिल से नहीं जातीं।
बहुत मासूम हैं वो ज़ख्मी कर गया लहज़ा जिनका, मेरे दिल को।
मैं करता तो हूं गुफ्तगु उनसे मगर 
ये काम मैं अब दिल से नहीं करता।

नाराज़ हो गए सच सरे महफ़िल जो कह दिया हमने।
क्या करें मजबुर हैं , झूठ बोलने की आदत भी नहीं है।
रातों को नींद हमको कहां आती जनाब। 
रस्ता बड़ा कठिन है मागर चल रहे हैं हम।
कभी कभी इंसान हमको बहुत खुश सा नज़र आता है।
दिल में उसके झांक के देखो तो टूटी हुई, 
कश्ती के सिवा कुछ नहीं मिलता।

                                      - डॉ. मुश्ताक अहमद शाह



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