पहली गज़ल
हूँ यहाँ तक कि हूँ वहाँ तक मैं
कोई कह दे कि हूँ कहाँ तक मैं
उसने पहले ही कर दिया ख़ारिज़
दे नहीं पाया इम्तहाँ तक मैं
आ रहा है नज़र धुआँ ही धुआँ
देखता हूँ जहाँ- जहाँ तक मैं
दोस्तों को बहुत है हैरानी
आ गया किस तरह यहाँ तक मैं
ज़िद्दी बच्चे-से दिल की ज़िद 'साहिल'
पूरी करता भला कहाँ तक मैं।
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दूसरी गज़ल
शाम तो क़हक़हों में डूब गई
और शब आँसुओं डूब गई
एक मासूम- सी ग़ज़ल मेरी
वक़्त की हलचलों में डूब गई
दिल अभी चाँदनी में डूबा था
चाँदनी बादलों में डूब गई
ख़्वाहिशें थीं कि बढ़ती जाती थीं
ज़िन्दगी ख़्वाहिशों में डूब गई
लब रहे थरथराते दोनों के
गुफ़्तगू धड़कनों में डूब गई
मेरे दिल में जो चाँदनी थी खिली
दर्द की स्याहियों में डूब गई
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- धर्मेन्द्र गुप्त साहिल
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