साहित्य चक्र

13 April 2025

धर्मेंद्र जी की सुंदर गज़ल





पहली गज़ल

हूँ यहाँ तक कि हूँ वहाँ तक मैं 
कोई कह दे कि हूँ कहाँ तक मैं 

उसने पहले ही कर दिया ख़ारिज़ 
दे नहीं पाया इम्तहाँ तक मैं

आ रहा है नज़र धुआँ ही धुआँ 
देखता हूँ जहाँ- जहाँ तक मैं 

दोस्तों को बहुत है हैरानी 
आ गया किस तरह यहाँ तक मैं 

ज़िद्दी बच्चे-से दिल की ज़िद 'साहिल' 
पूरी करता भला कहाँ तक मैं।

*****


दूसरी गज़ल


शाम तो क़हक़हों में डूब गई
और शब आँसुओं डूब गई
                     
एक मासूम- सी ग़ज़ल मेरी
वक़्त की हलचलों में डूब गई

दिल अभी चाँदनी में डूबा था  
चाँदनी बादलों में डूब गई
                     
ख़्वाहिशें थीं कि बढ़ती जाती थीं 
ज़िन्दगी ख़्वाहिशों में डूब गई

लब रहे थरथराते दोनों के
गुफ़्तगू धड़कनों में डूब गई

मेरे दिल में जो चाँदनी थी खिली 
दर्द की स्याहियों में डूब गई

*****

                                              - धर्मेन्द्र गुप्त साहिल 


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