साहित्य चक्र

20 March 2020

दहेज़



ये कैसी रीत जमाने के,बाशिन्दों ने बना डाली।
एक गरीब किसान के घर,लड़की क्या पैदा हुई;
उसकी आँखें नम कर डाली।
पलके भी ना खोली उसकी नन्ही सहजादी ने,
इसके पहले उसके दहेज की,चिंता भर डाली।
ये कैसी रीत जमाने के बाशिंदों ने बना डाली।

सुना है, नन्ही परी अब स्कूल जाने लगी है,
पड़ लिख कर कुछ नाम करेगी,ये ख्वाब सजाने लगी है।
पर पिता की चिंता,बेटी के साथ औऱ बड़ जाने लगी है;
सयानी न हो,उसके पहले दहेज जमा करना है,
ये चिंता खाने लगी ।
ये कैसी रीत जमाने के बाशिन्दों ने बना डाली ।

अपने आधे जीवन की पूँजी जमा करी है उस किसान ने,
बेटी को शादी में दहेज दे सकेगा,वो पूरे मान सम्मान से।
पर किस्मत का मारा वो ,तोले में सोना नही ला पाया ;
पगड़ी उछाली भरी बिरादरी में उसकी,
क्योकि वो मन चाहा दहेज नही दे पाया।
एक पल में उसकी जिंदगी भर की इज्जत मिट्टी कर डाली,
ये कैसी रीत जमाने के बाशिंदों ने बना डाली।

नए जीवन के अरमान लेकर वो गई थी ससुराल में,
प्रेम से सबको बांध कर रखेगी,वो अपने माँ बाप के संस्कार से।
पर बेगैरत यह दुनिया कहाँ ,प्रेम का मोल समझती है,
दहेज नही लाई ये अभागन उसे दिन रात गाली देती है।

एक दिन ये दहेज की आँच ,उसका जीवन तक जला देती है,
इतना भी क्या लालच धन का जो इंसानियत मिटा देती है।
आखिर दहेज के लालच ने इंसान की बुद्धि भ्रष्ट कर डाली,
ये कैसी रीत जमाने के बाशिन्दों ने बना डाली।

                                    ममता मालवीय 'अनामिका'


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