साहित्य चक्र

15 March 2020

मैं टूटकर

मैं टूटकर 
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मैं टूटकर बिखर सा गया हूँ 
मैं रेत सा फिसल सा गया हूँ 

मांझी के भरोसे बैठा हूँ 
लेकर कश्ती बीच दरिया में... 

मंजिल मेरी गुम हो गई 
मेरे चेहरे की रौनक खो गयी 
जिंदगी की कशमकश में... 

न सुकून, न चैन मिलता है 
बड़ी बेबसी भरी है ज़िन्दगी में...

ड़र है मुझे खुद से खुद का 
मैं कातिल बन न जाऊं 
कहीं फंस न जाऊं गुनाहों में... 

महफूज नहीं मेरा वक्त 
खुदा क्यों हुआ इतना सख्त 

मैं टूटकर बिखर सा गया हूँ 
मैं रेत सा फिसल सा गया हूँ 

                                               मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 


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