साहित्य चक्र

20 March 2020

कोई तड़फता है



ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
कब आती हो और
कब चली जाती हो,
लोग सोचते हैं शायद
किसी का कसूर होगा,
मगर आती हो तो
हज़ारो बेकसूरों को भी
अपने साथ ले जाती हो।

कोई तड़फता है
अपनों लिए
कोई रोता है,
औरों के लिए
पर तुम छोड़ती नहीं
किसी को भी
अपने साथ ले जाने को।

जब मरता है कोई एक
तो अफ़सोस-ऐ-आलम
कहते है सब
पर जब मरते है हज़ारों
तो ख़ौफ़-ऐ- क़यामत
कहते हैं सब।

तू भी कभी
तड़फती रूहों को
अपने गले लगाए,
ज़रा रोए कर
मरते हुए किसी चेहरें को
खिल-खिला कर
ज़रा हँसाए कर।

मानता हूँ की ख़ौफ़
तेरे रोम-रोम में बसा हैं
फिर भी किसी मरते हुए
इंसा के माथे को चूम
ज़रा-ज़रा सा मुस्काया कर।

ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
कब आती हो और
कब चली जाती हो।


                                            राजीव डोगरा 'विमल'


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