साहित्य चक्र

26 March 2020

“एक एहसास”




आज अचानक
बैठे – बैठे उनको
न जाने क्या सूझा
बोले, तू रुक।

आज चाय मैं बनाता हूँ।
अपने हाथों से तुझे पिलाता हूँ।

मैं सोच में ही थी,
और आँखों से झर रहे थे आँसू,
कि वो चाय बना कर लाए।

अपने हाथों से चाय पिलाने लगे,
पोंछ दिए मेरे आँसू, और
प्यार से सिर मेरा सहलाने लगे।

मैं एकटक देखती रही उनको,
शब्द कोई निकले न मुँह से।

ये वो 'एहसास' था,
जो न जाने कितने वर्षों
बाद आया था।

                                              कला भारद्वाज


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