शरद चांदनी की रातों में, ढूंढूं अजब ठिकाने को,
याद में उसकी खोया रहता, कौन सुने अफ़साने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।
झर झर झरने सी झरती क्यों,
आँखों से अश्रु की धारा
कम्पित अधरों की खामोशी,
बूझ सका न क्यों हरकारा,
भाव भंगिमा के बलबूते, आतुर थी समझाने को,
चुप्पी को ही अच्छा समझा, देख किसी अनजाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।
मधुमास में मधुकरी सी,
मधुवन में गुंजार करे,
फूलों कलियों की रंगत से,
नित नित नव श्रृंगार करे,
जब छलके यौवन मदमाता, फिर होश कहाँ दीवाने को,
गुन गुन करते आए भँवरे, प्रीत की रीत सिखाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।
विपुल केश राशि रजनी सी,
मुख पर जब भी आती है,
रूप सलोने की कान्ति,
चपला सी चमकती जाती है,
फरफर उड़ता आँचल उसका, मन मेरा ललचाने को,
लाख कोशिशें करता रहता, मैं भी उसको पाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।
उठती पलकें नज़र नशीली,
झुकती पलकों से शरमाये,
हिरणी सी जब चाल चले तो,
कमर लचीली बल बल खाए,
रूप निहारूँ बैठे बैठे, और सांसे हैं थम जाने को,
जादूगरी सी करती रहती, लगातार भरमाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।
ललना की छलनी छाया को,
लिपटा लूँ अपनी बाहों में,
बस मदहोशी का आलम हो,
क्यों प्यासा भटकूँ राहों में,
प्रणय चेतना अगन लगाती, जो कहती जल जाने को,
मयखाने में मैं क्यों जाऊँ, अपनी प्यास बुझाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।
विजय कुमार पुरी, सम्पादक
सृजनसरिता
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