साहित्य चक्र

01 March 2021

संत रैदास से कबीर दास तक जाति तक सीमित क्यों ?

संत रैदास, कबीरदास जैसे ओजस्वी व तेजस्वी गुरु यदि जातिय खांचे में बिठाये गये यह एक तरह से देश की विडंबना है। यह विडंबना केवल सवर्ण समाज के लिये ही नहीं बल्कि हजारों जातियों में बंटा हुआ निचले तबके का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य कहा जाय। उदाहरण हेतु बाल्मीकि समाज को ले लीजिए! वे अज्ञानता व विचारधाओं की लड़ाई के चलते बाल्मीकि से आगे नहीं नहीं निकल सके। हर एक समाज का यही आलम है चाहे कोई भी जाति के हों वे कि खुद की पहचान के चलते वे बेहतर नहीं चुन सके और खुद की पहचान जैसी कोई भी बात नहीं बल्कि वही तो मुख्य जातिय संरक्षण है।

मीराबाई लिखती है: “मोहे गुरु मिल्या रैदासा!” मेवाड़ राजघराने की महारानी जो कि मेवाड़ के महाराजा राणा सांगा के पुत्र महाराणा कुंवर भोजराज की पत्नी महारानी मीराबाई ने सन्त रविदास जी को अपना गुरु बनाया। उनकी बगावत, संघर्ष और मृत्यु के किस्से आज भी सुने जा सकते हैं लेकिन सबसे बड़ी विचित्र बात थी संत रैदास को गुरु चुनना। मेवाड़ की रानियां ही नहीं रैदास के तेज से तो ब्राह्मण हरिराम व्यास, रज्जब मुसलमान, गुरु रामदास और गुरु अर्जन देव जैसे सिख गुरु तक सबने एक स्वर में रैदास चमार को अपना सगा, अपना गुरु और अपने आराध्य तक की श्रेणी में रखा था लेकिन अज्ञानियों व वर्चस्ववादीयों ने उन्हें बहुत ही सीमित रखा।

रैदास/रविदास/रोहदास/रोहिदास नाम अनेक हैं उनके वे चर्मकार दलित वर्ग में जन्मे बहुत ही तेजस्वी गुरु हुए हैं! कहते हैं कि उनका तेज़ रवि (सूर्य) सामान ही था और इसलिए उनका नाम ही पड़ गया रविदास! तेज़ और ज्ञान ऐसा कि उनपर जब संस्कृत सीखने पर मनाही लगा दी तो उन्होंने एक नयी भाषा और लिपि ही बना डाली: गुरुमुखी! श्री गुरुग्रंथ साहिब में रविदास की वाणी संकलित है और पंजाबी भाषा गुरुमुखी लिपि की भाषा है किन्तु सिक्खों में भी जातिवाद के चलते उनके साथ पूरा न्याय न हो पाया और रविदासिया पंथ सरकमफ्रेंस पा चला गया! ज़िक्र मिलता है कि वे प्रकाण्ड ज्ञानी तो थे ही और रूपरंग के भी धनी थे, लम्बाई कोई सात हाथ, गोरा रंग, ओजस्वी और अत्यंत प्रभावी छवि।

मध्यकालीन भारत के संतों में एक खास बात यह देखी जाती है कि उन्होंने स्वयं श्रम करते हुए अपना गुजारा किया। लगभग सभी संतों ने अपना पेशा आजीवन जारी रखा। कबीर कपड़ा बुनते रहे, संत सैन ने नाई का पेशा बरकरार रखा, नामदेव ने कपड़े पर छपाई जारी रखी, दादू दयाल ने रुई धुनने का काम नहीं छोड़ा और गुरु नानक ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष खेती करते हुए ही बिताए लेकिन इन सबमें रैदास का पेशा एकदम जुदा था। वे मोची थे। जूते बनाते थे और उसकी मरम्मत भी करते थे। समाज की भाषा में उनकी जाति कथित ‘चमार’ की थी पर कर्मप्रधान वर्णव्यवस्था की बात करने वालों ने उनके कर्म को नीच माना तथा उन्हें हाशिये पर रखा।

तुलसीदास से बहुत पहले जन्में रैदास ने ज्ञानी शुद्र को पूजनीय कहा और दुर्गुण ब्राह्मण को अपूजनीय। "रैदास बांभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन। पूजिए चरन चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन।" वहीं तुलसीदास ने इसी को उलट करके कहा कि शुद्र कभी पूजनीय नहीं हो सकता बशर्ते वह कितना ही ज्ञानी व गुणवान क्यों न हों जबकि ब्राह्मण दुर्गुणी होकर भी पूजनीय है। "पूजिए विप्र शील गुण हीना, शूद्र ना गुण गण ग्यान प्रवीणा।" और हुआ भी वही तुलसीदास पूजनीय बने और रैदास वन्दनीय भी न रह सके।

शुद्र अथवा निम्न वर्ग के लोगों को पहले यह अपनी सीमित वैचारिक पहचान समाप्त करनी होगी तथा उन्हें बुद्ध, रैदास, कबीर, पलटू राम, दादू दयाल, नानक, बिरसा, गाडगे, फुले, पेरियार, अंबेडकर, भगतसिंह, उधमसिंह आदि के महत्व को बिना जाति के समझना होगा। तुलसीदास और रैदास या समकालीन तुलसीदास व कबीरदास जैसे संतों के मध्य की प्रासंगिकता को समझना होगा। तर्क व कुतर्क के अंतर को समझकर तर्कसंगत विचार को बेझिझक स्वीकार करना होगा तभी समाज में कुछ वैचारिक क्रांति का प्रसार होगा। संतों के संत यानि संत शिरोमणि रैदास जयंती की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।


आर पी विशाल


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