भारत में एक तेल का ब्लॉक है जहाँ पे तेल का बढ़ा भंडार है। सरकार के पास दो रास्ते हैं, (१) वो उसे PSUs यानी सरकारी/अर्ध सरकारी कंपनियों को देदे या दूसरा विकल्प है (२) प्राइवेट कंपनियों जैसे रिलायंस, एस्सार वगैरह को दे दे।लेकिन दोनों से जनता और सरकार को क्या लाभ और क्या हानि हैं।
पहला केस- सरकारी कंपनियां काम करेंगी, किसी नेता या पार्टी को चंदा नहीं देंगी क्योंकि बेलेंस शीट में घूस का कॉलम नहीं होता। जहाँ मुनाफा की जगह चेयरमैन भी सैलरी लेता है वहां अपनी जेब से भी कोई नहीं दे सकता। इन कंपनियों में सैकड़ों लोग काम करेंगे जिनके लिए UPSC , IES , GATE जैसी परीक्षाएं होंगी, उन्हें पास करने वाले विधार्थी आएंगे, आरक्षण के अनुपात में हर वर्ग को मौका मिलेगा। समाज के निचले तबके का लड़का-लड़की भी आसानी से ऊँची नौकरी पा जायेगा। राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और झारखण्ड के आदिवासी समाज जैसे इलाकों से आने वाले छात्र भी कानून में दी गयी सहूलियत के कारन देश की मुख्यधारा में आ जायेंगे। सरकारी कंपनियों का मुख्य उद्देश्य जनता को सेवा या उत्पाद मुहैया करना होता है इस लिए न्यूनतम लाभ में भी काम कर सकती हैं। इस वजह से 2014 तक डीजल कीमतें कम रहीं और उनपर सब्सिडी मिलती रही।
दूसरा केस- प्राइवेट कम्पनियाँ सकल लाभ के लिए काम करती हैं इस लिए सबसे पहले वो कीमत उतनी ऊँची रखेंगी जितनी ज्यादा में लोग खरीद लें चाहे मज़बूरी में या मर्जी से। कई प्राइवेट कंपनियों में से ठेका उसे मिलेगा जो पार्टी को मोटा चंदा देगा। अब जब कंपनी मोटा मुनाफा कमाएगी तो उसमें से एक भाग निकल कर चंदे में देने में क्या हर्ज़ है। अब क़ानूनी रूप से छुप के चंदा देने के लिए सरकार "इलेक्टोरल बांड" नाम का टूल ले आयी है। इसके बदले सरकार सब्सिडी हटाकर, टैक्स बढ़कर या अन्य क़ानूनी तरीकों से कम्पटीशन वाली कंपनियों (जैसे IOCL, BPCL, HPCL ) के उत्पाद की कीमतें भी इतनी ऊँची कर देगी की मोटा मुनाफा होता रहे।
प्राइवेट कंपनियों में आरक्षण का मसला ही ख़त्म हो गया। अब किसी निचले तबके की मांग नहीं उठेगी की उसे आरक्षण मिले। इस कंपनी के मालिक का बीटा (जैसे धीरूभाई अम्बानी का बेटा मुकेश अम्बानी) मालिक बन जायेगा लेकिन उसे इस देश में क़ानूनी रूप से आरक्षण नहीं कहा जा सकता, असलियत में बेटे की कुर्सी बाप के नाम के साथ ही आरक्षित हो जाती है। जनरल मैनेजर, डाइरेक्टर इत्यादि के बेटे-बेटियों को उनके एक फोन पे अच्छी कंपनियों में नौकरी मिल जाती है उसे भी एक तरह का आरक्षण कह सकते है लेकिन वो संवैधानिक नहीं है। असल में वो गरीब की बजाय सबसे कुलीन वर्ग का आरक्षण है।
इस तरह सरकार को चंदा मिला, नेताओं को घूस मिली, उच्च वर्ग (में से भी कुछ खास लोगों) को नौकरी मिली, लेकिन आम जनता को क्या मिला ? सिर्फ महंगी चीजें और ऊँचे टैक्स। बस यही है प्राइवेटाइजेशन।
प्राइवेटाइजेशन के नुकसान: IOCL बिकेगी तो रिलायंस बोली लगाएगा जो पहले से दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में से हैं, रेलवे बिकेगा तो अडानी खरीदेगा जो पहले से देश के एयरपोर्ट और सी पोर्ट खरीद चुका है। इसमें छोटे व्यापारियों को कुछ नहीं मिलेगा, छोटे व्यवसाय करने वाले लोगो के यहां काम करने वाले लोगो को कुछ नहीं मिलेगा। जब माल खुलता है तो पास पड़ोस का मल्टी-ब्रांड खुदरा मार्किट ख़त्म हो जाता है। जब बिग बाजार और नीड्स आता है तो परचून की दुकान बंद हो जाती है। सिर्फ एक दुकान का मालिक नहीं, उसमें काम करने वाले चार लड़के भी बेरोजगार होते हैं जो इतने पढ़े लिखे भी नहीं होते जो उस मॉल में सेल्स मैन बन जाएँ। ये एक छोटा उदाहरण है बड़ी बात समझने का। अब फलाने के पास रॉ विजडम है तो कुछ सोच के निर्णय लिए होंगे क्योंकि मेरे पास मात्र अंतर राष्ट्रीय उधोग में उधोग प्रबंधन की डिग्री ही तो है कोई एंटायर पोलिटिकल साइंस तो पढ़ा नहीं है।
लक्ष्मीप्रताप सिंह
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