साहित्य चक्र

20 March 2021

माँ का गर्भ




जब भी मैं माँ के गर्भ में थोड़ा भी मचलती थी
तुरन्त वो हाथ फेर कर मेरा आलिंगन करती थी
जब भी मैं भूख से अपने पैरों को हिलाती थी
वो थी जो सब समझकर, कुछ जा कर खा आती थी
जब वो पोषण दे मुझे तृप्त करती थी
माँ एक मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।


जब भी मैं देर रात को चीख मार कर रोती थी
वो झटपट आधी नींद से उठ मुझे अपने बाहों में भर लेती थी
पूरी नींद सौंप मुझे
वो आधी नींद में खुश हो लेती थी
जब भी वो लोरी सुना मुझे सोने को प्रेरित करती थी
माँ एक और मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।


जब भी मैं धूप में खेला करती थी
और रौद्र सूर्य मुख को मेरे लालिमा से भर देता था
माँ तभी बुला कर, थपकी मेरे वक्षों पर धर देती थी
मैं थक हार कर जब भी सोती थी
माँ मेरे पैरों के दर्द को हर लेती थी
माँ फिर एक मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।


जब भी मैं जीवन के क्रमिक विकास में ठहर गयी
माँ ने हाथ थाम कर हर डगर मेरी सरल की
जब भी छाले पड़े कठिनाइयों के पैरों में
उस पर माँ के जादुई मरहम लगे,
माँ यूँ मुसका कर हर पीड़ा का निवारण कर देती थी
तब माँ एक और मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।


इस जीवन की रण भूमि में
जब- जब जीवन शिथिल हुआ
माँ ने तब- तब मेरा सिर सहला
मेरा मार्ग प्रशस्त किया
एक-एक मोती पिरोया ख़ुद के जीवन से निकाल कर
जीवन की माला तैयार की किश्तों में मोती लगा कर
अच्छे-बुरे, मीठे- कड़वे सब हिस्सों को सजाया है
ईश्वर ने सबसे अच्छा जीवन बुनना मेरी माँ को सिखाया है।


                                                   नेहा अपराजिता


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