साहित्य चक्र

07 March 2021

नारी....



मैं नारी हूँ....मैं स्त्री हूँ.....
मैं भी उस कोख से जन्मी हूँ
मैं कली हूँ....मैं कमसिन हूँ ...
मैं भी उपवन की फुलवारी हूँ 
मैं मां हूँ.....मैं बेटी हूँ....
मैं भी जीवन का हिस्सा हूँ 
मैं तुलसी हूँ.....मैं दर्शन हूँ....
मैं ही तो भगवत गीता हूँ 
मैं लक्ष्मी हूँ.....मैं सरस्वती हूँ....
मैं द्रौपदी हूँ.....मैं सीता हूँ.....
पुरुषों की दुनिया ने ,
मुझे कैसे नियति दिखलाई 
एक तरफ तो पूजन करते ,
कभी जुए में हार गए ।

सरस्वती की चाह वो रखते ,
अग्नि परीक्षा मांग गए 
कलयुग हो या सतयुग हो ,
इल्जाम मुझ ही पर आता है, 
क्यों घनी अंधेरी सड़कों पर ,
चलने से मन घबराता है 
आधी रात को बाहर निकलना, 
सिर्फ शौक नहीं हो सकता है ।

मेरे काम करने से ही ,
परिवार का पेट पलता है ।
मैं डरती हूँ ....सहमती हूँ....
जब सफर अकेले करती हूँ।

मेरी सांसे रुक जाती है......
जब नजर किसी की गड़ जाती है।
 धड़कन तब बढ़ जाती है ....
जब नियत समझ में आती है ।

माथे पर पसीना बहता है ,
भीतर रूह कांप जाती है ।
आखिर में हुआ वही ,
जिसका मुझे अंदेशा था ।

आदमी की खाल में ,
छिपा हुआ वह भेड़िया था ।
इतने में भी कहाँ खत्म ,
हुआ वह सिलसिला था ।

सवालों की बौछार थी ,
इल्जामों का रेला था ।
चीरहरण तो हो चुका ,
अग्निपरीक्षा बाकी थी ।

गलती मेरी रही होगी .....
ऐसा कईयों ने फरमाया ।
मैं भीतर तक टूट चुकी .....
ऐसा किसी को समझ ना आया। 
शरीर के जख्म तो समय साथ भर जाएंगे ,
लेकिन मन की पीड़ा तो ताउम्र रह जाएगी ।

याद रखो यह कहने वालों
यह आखरी गलती आपकी ।
कल सड़क पर बेसुध बहन- 
बेटी क्या नहीं हो सकती आपकी !

इस अहसास से बढ़कर कोई दर्द नहीं हो सकता है,
जो नारी का अपमान करे वह मर्द नहीं हो सकता है ।

                                                 स्वाति मानधना' सुहासिनी' बालोतरा


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