साहित्य चक्र

07 March 2021

मनुस्मृति में क्यों हुई नारी की विस्मृति ?




इस तथ्य में कोई दो राय नहीं है कि भारतीय सभ्यता में नारी को देवी का दर्जा दिया जाता है और नारी का सम्मान सर्वोपरि है। वह सारी सृष्टि की पालक और जीवन दायिनी है। देखा जाए तो ऐसे कौन-से कारण रहे होंगे जिन्होंने नारी के वर्चस्व पर सवाल उठाते-उठाते उसे दीन-हीन और संस्कारों के नाम पर बेड़ियों में बंधी हुई एक वस्तु बना दिया। स्त्री के अस्तित्व को नकारते हुए उसे दूसरे दर्जे की प्राणी घोषित कर दिया और कहा कि तुम बुरे कर्मों की वजह से नारी का जन्म प्राप्त हुई हो।  

मनुस्मृति ग्रंथ में हमारे समाज को किस प्रकार सामाजिक तौर पर अपनी जीवनशैली बनानी चाहिए, इन बातों का वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ के (अध्याय- 9 के श्लोक 2 से 6) तक में नारी की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यह निर्णय लिया किया गया कि समाज में नारी का जो भी रूप है- चाहे वह मां है, बेटी है, पत्नी है ,बहन है उसे स्वतंत्रता का कोई अधिकार नहीं है और वह पुरुष के प्राधीन होनी चाहिए। इस विकृत  मानसिकता को देखते हुए नारियां युगोंं-युगोंं से अधीन होती हुई अपने स्वतंत्र वर्चस्व की कल्पना भी नहीं कर पायी। वह पुरुष की आदि शक्ति होते हुए भी अपना आधा अधिकार भी नहीं प्राप्त कर सकी, जबकि पुरुष और  नारी दोनों को प्रकृति ने समान अधिकार दिए हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना तक नहीं की जा सकती है, तो फिर एक व्यक्ति सर्वोपरि कैसे हो सकता है ? 

मनुस्मृति के (अध्याय- 9 में श्लोक 45) में विवाह संबंधी संस्कार के लिए स्त्री को एक वस्तु की तरह दान किया जाता है। यह कैसी प्रथा हुई जब कि सृष्टि चलाने के लिए पुरुष और महिला की समान भागीदारी है, फिर क्यों उसे वस्तु की तरह दान करके पुण्य कमाया जाता है। वह वस्तु  जिसे उसका पति  छोड़ सकता है, उसको गिरवी रख सकता है आखिर क्यों..? लेकिन कोई स्त्री ऐसा क्यों नहीं कर सकती..? नारी की परिभाषा एक दासी के रूप में की गई है, जो हर रूप में बस पुरुष की सेवा ही करेगी और वह पुरुष उस स्त्री को छोड़ ना दें इस हीन भाव से वह हमेशा ग्रस्त रहती है। 

विवाह संस्कार में स्त्री को एक दान की वस्तु बताई जाने से यह साबित हो जाता है कि कुछ प्रभावशाली पुरुषों ने अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए नारी के वर्चस्व को दबा दिया था। पुरुष समाज ने इस प्रकार जाल बुने कि वह नारी अपनी स्वतंत्र सोच का अनुकरण ही नहीं कर पाए सिर्फ घर की चारदीवारी में बंद और उसे घर परिवार से कभी बाहर ही नहीं निकलने दिया। जिसने निकलने की कोशिश की उन पर चरित्र हीनता का आरोप लगाकर उनके उत्साह को बराबर तोड़ा गया। इसी प्रकार मनुस्मृति के (अध्याय- 9 श्लोक 17) जिसमें स्त्री को कामी और वस्त्रों से प्रेम करने वाली, बेईमान, दुराचारी बताया गया है और यहां तक कि उसे नर्क का द्वार भी माना गया है। इस सोच के पीछे भूतकाल में कुछ अहमवादी पुरुषों की मानसिकता रही होगी। जिसने नारी जाति के लिए ऐसे शब्द लिखे होंगे जबकि उस को धरती पर लाने वाली भी कोई नारी ही होगी। अगर वह पुरुष अपनी मां का सम्मान नहीं कर सकता तो वह अन्य नारी जाति का क्या सम्मान करेगा ? 

मनुस्मृति की आड़ में समाज के जिन जातियों ने पुरुष ठेकेदारों के इस ग्रंथ को अपने हित में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए इसे सही माना और इसके अनुसार समाज को चलाने की कल्पना की वह सरासर दुःखनीय है। आखिर इन जातियों ने अपनी ही माँ, बहन, पत्नियों के बारे में क्यों नहीं सोचा होगा..? 

इस पुरुषवादी ग्रंथ में स्त्रियों को एक वस्तु से भी ज्यादा सम्मान नहीं दिया है और इस ग्रंथ ने समाज को एक ऐसी सोच दी है, जो समस्त मानव जाति के लिए कैंसर है। जब नारी खामोश रहती है उसका सम्मान होता है लेकिन जब वही नारी अपने हितों के लिए लड़ने लगती है, तो उसके चरित्र पर कई सवाल उठाए जाते है। आखिर क्यों और इन सबके लिए कौन जिम्मेदार है..?

वर्चस्व की इस लड़ाई में व समाज के निर्माण में नारी जाति पर हुए अत्याचारों के लिए और उन्हें रोकने के लिए हमारे समाज के कई महान पुरुषों-स्त्रियों ने जो आंदोलन किये हैं, वह नारी समाज को कभी भूलना नहीं चाहिए। चाहे वह ज्योतिबा फुले हो और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले द्वारा महिलाओं के लिए किया गया आजीवन संघर्ष हो। हम सभी को मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए और एक नई सोच देनी चाहिए। जिसमें जितना एक पुरुष भागीदार है, उतनी ही एक नारी भी भागीदार हो। मनुस्मृति के कुछ अध्याय और श्लोकों में चाहे नारी के अस्तित्व को धूमिल किया गया हो, लेकिन भगवान शिव का अर्धनारीश्वर  स्वरूप धारण कर के समाज को यही संदेश देना था कि इस धरा पर प्रकृति में नर-नारी का समान महत्व है। हाँ मैं यह भी स्वीकारती हूं कि भूतकाल में मनुस्मृति जैसे कई ग्रंथ लिखे गए, मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम आज आधुनिक युग में जी रहे है। हमें अपने धार्मिक ग्रंथों ने अच्छाइयाँ सिखनी चाहिए और उन्हें अपने जीवन में उतारना चाहिए। ना कि आँख बंद कर और बिना पढ़े किसी की भी बातों में विश्वास करना चाहिए। मैं आप सभी से कहना चाहता हूं- सभी धर्मों के धार्मिक ग्रंथों को भी हम जैसे प्राणियों ने ही लिखे हैं। इसलिए हमें इन सभी ग्रंथों से अच्छाइयाँ अपनानी चाहिए और एक शिक्षित, साफ, सुंदर समाज की ओर बढ़ना चाहिए। इसी में एक हम सभी भारतवासियों का सम्मान है।


                                                                                       प्रीति शर्मा" असीम"


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