साहित्य चक्र

21 March 2021

छाई उदासी गहरी

ग़ज़ल

आपके ही गॉंव में, कब से नदी इक ठहरी है।
और नीचे बस्तियों में, जल की अफ़रा-तफ़री है।

जो विमानों से शहर की, दूरियों को मापते हैं,
उनको क्या मालूम कैसी, जेठ की दुपहरी है।

जब से फूलों की तिजारत, बागवॉं करने लगा,
हर कली बेनूर है, छाई उदासी गहरी है।

किस तरह आवाम की, आवाज़ वो सुन पायेगी,
दूर दिल्ली नहीं केवल, हो गई अब बहरी है।

हम ईमॉं के रास्ते पे, चलके कहलाये गॅंवार,
सोचिए फिर इस नज़र से, कौन कितना शहरी है।

                               बिनोद बेगाना


No comments:

Post a Comment