साहित्य चक्र

20 February 2021

विरोधाभासी प्यार



कितना विरोधाभासी है मेरा प्यार
कभी कभी मैं समझ नहीं पाती
मेरे दिल में तुम हो
या कोई और भी है
रिक्तता को कोई तो भरेगा
पर वह होगा कौन?

कभी किसी की बातों से
पिघल जाती हूं
तो किसी के रूप को
देख फिसल जाती हूं
तो किसी के सादगी
पर मचल जाती हूं।

फिर क्षणवादी सुख
जीवन का दुःख बन जाता
जिसको को याद करने का
फिर जी ना चाहता है।

तुम्हारे उचित विकल्प की
तलाश में हूं और तुम ही
मेरे अंतिम विकल्प बनते हो
फिर विरोधाभासी क्यों है?
शायद अंतर्मन ही मान बैठा है
तुम्हारी वापसी कभी न होगी।

हां विरोधाभासी है मेरा प्यार
इसलिए इतना है तुमसे प्यार
जो पूर्ण होने का नाम ना लेता
सदा अपूर्ण ही बना रहता है।

                                       कुमारी अर्चना


No comments:

Post a Comment