साहित्य चक्र

20 March 2021

सतकर्म का आचरण



अनासक्त होकर कर्म करने वाला ईश्वरार्थ कर्म करता है। श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो कर्म करते है, दूसरे लोग उसका अनुसरण करते है। ईश्वर को कोई भी कर्म नहीं करना पड़ता। क्योंकि उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है। तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्म नहीं है। फिर भी, लोक को लोक स्थिति में रखने के लिए परमात्मा कर्म का बर्ताव करते है।




इसे अपने जीवन में उतार लेना जीवन को ईश्वर के लिए अर्पित करना है। जीवन में हम पुण्य की लालसा लेकर दान करते हैं। जबकि दान हमेशा ईश्वर को समर्पित होना चाहिए। दान हमेशा यदि सुपात्र को दिया जाय तो दान ईश्वर तक अवश्य पहुंचता है। दान करने वाले के लिए दान करने के दो ही कारण है। पहला श्रद्धा और दूसरा शक्ति। दान के प्रति श्रद्धा और दान के लिए सामर्थ्य के अभाव में दान नहीं हो सकता है। श्रद्धा से दिया गया दान ही फलदायी होता है। यदि कोई व्यक्ति लालच या दबाव में दान करता है तो उसे उसका पुण्य नहीं मिलता है। ठीक उसी प्रकार शक्ति भी है, शक्ति का अर्थ यहाँ सामर्थ्य से है। सामर्थ्य के अनुसार यानी कुटुंब के भरण-पोषण से जो बचे उसे ही दान में देना चाहिए। अपनी जरुरतों की पूर्ति न हो रही हो और कोई दान करता है, तो ऐसा दान व्यर्थ ही है। शास्त्रों में किसी दबाव या लालच में दान देने को वर्जित किया गया है। इतना ही नहीं उसी धन को दान दिया जा सकता है, जिसे किसी को सताकर न प्राप्त किया गया हो। किसी कामना की इच्छा न रखकर सुपात्र को दिया गया दान धर्मदान कहलाता है। दान लेने वाले व्यक्ति का भी मान रखना चाहिए। उसकी आत्मा का भी मान है। उसको दीन-हीन समझकर व्यवहार में अभिमान लेकर किया गया दान पाप ही है, दरअसल सोच यह है कि दान लेने वाले व्यक्ति ने यदि दान स्वीकार कर लिया तो दान देने वाले को पुण्य की प्राप्ति होती है। दान लेने वाले ने दान स्वीकार कर कृपा ही की है। जो हमारे पर्यावरण, समाज और देश को पुष्ट करने वाला हो, वह दान ख्यातिलब्ध दान कहा जाता है।


यज्ञ द्वारा प्राप्त स्त्री, पशु, पुत्र आदि देवों द्वारा प्राप्त भोगों को परमात्मा को समर्पित न कर अर्थात् उनका ऋण न चुकाकर, जो अपनी ही तृप्ति करता है, वह पाप खाता है। यह देवताओं के स्वत्व का हरण करने वाला है। यज्ञ शिष्ट अन्न का सेवन करने वाले श्रेष्ठ कहे गए हैं। यह कुछ इस तरह है कि उदर परायण लोग केवल अपने लिए ही अन्न पकाते हैं, वे स्वयं पापी हैं और वे पाप ही खाते है। ऐसे में हमें यह तो सोचना ही चाहिए कि पाप काहे को खाना। अधिकार प्राप्त व्यक्ति को कर्म करते रहना चाहिए। क्योंकि कर्म जगत् चक्र की प्रवृत्ति का कारण है। मनु स्मृति में इस संबंध में कहा गया है कि अग्नि में विधिपूर्वक दी हुई आहुति सूर्य में स्थित होती है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न उत्पन्न होता है, और अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है। क्रिया रुप कर्म वेदरुप ब्रह्म से उत्पन्न होता है। इस प्रकार कर्म की उत्पति का कारण वेद है। वेद रुप ब्रह्म सभी अर्थों को प्रकाशित करने वाला है। इसीलिए यह सर्वगत है। यज्ञ विधि में वेद की प्रधानता होने के कारण यह सर्वगत होता हुआ सदा यज्ञ में ही स्थित होता है। आत्मा को जान लेने के बाद सारा मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है। अब केवल आत्मा से ही प्रेम रह जाता है। जो आत्मा से ही तृप्त होने वाला है। उसकी तृप्ति अन्न रसादि से नहीं होती है। यह तृप्ति तृष्णा को सदा के लिए दूर कर देती है। परमात्मा से यह प्रीति संसार में कर्म करने के सारे प्रयोजनों को समाप्त कर देती है। किसी फल के लिए प्राणि विशेष का प्रयोजन सिद्ध करना पड़ता है। इससे फलासिक्त कर्म का आरम्भ होता है। यह यथार्थ ज्ञान से दूर करने वाला है।


अनासक्त होकर कर्म करने वाला ईश्वरार्थ कर्म करता है। श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो कर्म करते है, दूसरे लोग उसका अनुसरण करते है। ईश्वर को कोई भी कर्म नहीं करना पड़ता। क्योंकि उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है। तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्म नहीं है। फिर भी, लोक को लोक स्थिति में रखने के लिए परमात्मा कर्म का बर्ताव करते है। ईश्वर के कर्मों का अभाव होने पर सब लोक नष्ट हो जाएंगे। यह ईश्वर के अनुरुप नहीं है। ऐसे में यही ठीक है कि हमें ईश्वरार्थ कर्म करना चाहिए। अपने कर्तव्य का अभाव होने पर हमें केवल दूसरों के अनुग्रह के लिए कर्म करना चाहिए।


लोक के रक्षार्थ किया जाने वाला कर्म आत्मज्ञानी का कर्म है। कार्य का नाम आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रस, रुप, गंध है, जबकि मन, बुद्धि और अहंकार तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र, घ्राण, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा करण है। सत्व, रज और तम् इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का जो रुप प्रकट है उसी का नाम प्रकृति है। इसी प्रकृति की प्रधानता के कारण कार्य और करण के हेतु सभी कर्म किए जाते है। कार्य और करण के संघात से शरीर की प्रतीति होती है। इसी प्रतीति का नाम अहंकार है। देहाभिमानी अज्ञानता के कारण प्रकृति के कर्मों को अपना मान बैठता है। वह उन कर्मों का खुद को कर्ता मानने में ही सुख समझता है। यह सुख नहीं बल्कि ईश्वरार्थ किए जाने वाले कर्म से दूरी को बढ़ाने वाला है। इसलिए गुण रुपी कर्म में आसक्त हुए बगैर ईश्वरार्थ कर्म का आचरण करना चाहिए।


                                                                   प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"


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