साहित्य चक्र

21 December 2024

कविता- जिंदगी





खामोश लबों की दास्तां खामोशी से छुपा रखी है,
खामोशी पर हज़ारों गमों की ज़िल्द चढा रखी है,
जिससे भी निभाई थी सबसे ज्यादा रस्मे वफा,
उसने दुनिया किसी और के वास्ते सज़ा रखी है।

गम नहीं हमने गमों के साथ जीना सीख लिया है,
हज़ारो गमों को भी अब छुपाना सीख लिया है,
शायद मज़बूरी होगी तेरी या तेरी तंग दिली थी,
हमने अब भी कांटों से दोस्ती बरकरार रखी है।

तेरे दामन को थामने की हमने भी ठान रखी है,
हमने भी तेरे कदमों संग कदमताल मिला रखी है,
तू जितनी भी खेल आँख मिचौली हमारे साथ, 
तू जिधऱ भी जाए तेरे पदचिन्हों पर नज़र रखी है।

सितमगर है तू,सितम ढाने की कसम खा रखी है,
पर मैने भी हद से गुजरने की कसम खा रखी है,
सता ले चाहे जिंदगी जितना भी अपनी आदत से,
मैने भी तुझे जीतने की कसम खा रखी है।


                                                                   - राज कुमार कौंडल 


दुनिया की नजरों से देखा उन्होंने





क्यों की मैं अब दुनिया के रिती और 
रिवाजों से नहीं चलता हूं!
क्यों की जों दिखता हैं.  
उसपर यकीन नहीं करता हूं ।

दुनिया के नजरों से देखा उन्होंने
क्यों की मैं भावों के भव सागर में डूब जाता हूं 
और इल्म के साथ जीता हूं.
क्यों की मैं यथार्थ को पीता हूं।

दुनिया के नजरों से देखा उन्होंने 
क्यों की पथीक पावनी सा एक पथीक था मैं, 
जो आपने ही वेग से मेरू कों मार, कर,
पार खुद क्षीर ,बन धीर - गंभीर सी बन जाती हैं।

दुनिया की नजरों से देखा उन्होंने 
क्यों की अवाम को कम बेजूंबान कों अधिक सुनता हूं मैं!
क्यों की मैं इंसान के करीब कम आसमां सुरज, 
चांद के अधिक करीब  रहता था मैं।
दुनिया के नजरों से देखा उन्होंने
क्यों की मैं चातक सा जीता था! और 
स्वाति का रसपान करता था  !
दुनिया की नजरों से देखा उन्होंने।


                                                     - विवेक यादव 


वो सर्दी की धूप में बैठना


आहा! क्या याद दिला दिया आपने। वो सर्दी की धूप में बैठना। स्मृतियों का पिटारा खुल गया। मेरा शिमला और हमारे बरामदे, आॅंगन और छत की धूप। हमारे लिए धूप किसी वरदान से कम नहीं हुआ करती थी। जिस घर में हम रहते थे, प्राचीन निर्माण शैली पर था। बहुत बड़े-बड़े कमरे और बाहर बहुत बड़ा बरामदा। बरामदे के आगे ढलान लेती छत।





और घर से बाहर बहुत बड़ा आॅंगन, जहाॅं हम फूल और सब्ज़ियाॅं भी उगाते थे, कपड़े भी सुखाते थे। इस तरह हमारे पास धूप सेंकने के लिए तीन जगह हुआ करती थीं। प्रातः उदित होते सूर्य के साथ अस्ताचल की ओर जाते सूर्य देव हमारे घर के चारों ओर घूमते ही रहते थे और हम सब भी सूरज के साथ-साथ अपने बैठने की जगहों पर घूमते रहते थे। शिमला में ग्रीष्म और शीत ऋतु दोनों ही मौसम में धूप का आनन्द लिया जाता था।

फ़ोल्डिंग चारपाईयाॅं, दरियाॅं और पटड़े हमारे लिए सारा दिन धूप में घूमते रहते थे। घर के अन्दर का रोटी-पानी का काम समाप्त हुआ और पूरा परिवार आॅंगन में धूप में। कोई पायताने पर, कोई सिरहाने कोई नीचे तो कोई पैर लटकाकर बैठ जाता था। अचार डालना, पापड़ बनाना, सेंवियाॅं बनाना, मटर छीलना, सब्ज़ियाॅं काटना, लकड़ी-कोयला तोड़ना और न जाने कितने ही काम धूप में बैठकर गपशप में ही निपट जाते थे। नहाकर बाल सुखाने के लिए धूप में आना ज़रूरी था। थाली में खाना डालकर बाहर ले आते और धूप में ही बैठकर खाते थे। सबसे बड़ा काम होता था स्वेटर बुनना। हर किसी के हाथ में उन-सिलाईयाॅं ज़रूर रहा करती थीं। और थोड़ी-थोड़ी देर बाद चाय बनकर आती रहती और हम पियक्कड़ बने रहते।

जब बर्फ़ गिरती और उसके बाद धूप निकलती तो बेलचा लेकर बर्फ़ हटाते और चारपाई के लायक जगह बनाकर उस पर बैठ जाते, उन सर्द हवाओं और ठण्डी धूप का अपना ही आनन्द होता था। दो-दो, तीन-तीन स्वेटर पहने, टोपियाॅं लगाये मफ़लर लपेटे और धूप सेंकते। बहुत याद आती है शिमला तेरी।


- कविता सूद


कविता- आंसू मन में...






सोचा है किस कारण सारे सागर खारे होते हैं ?
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

नदिया की अविरल धाराएं मन की व्यथा सुनाती हैं
ठहर-ठहर हर डगर, घाट पर गोपन कथा सुनाती हैं।

गाती हैं मन की पीड़ाएँ हिय के घाव दिखाती हैं
कभी-कभी घर की बातों को चौबारों तक लाती हैं।

नदिया के दुख हरने को वे बाँह पसारे होते हैं
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

जिनके आँसू सीपी में ढलकर मोती बन जाते हैं
परिवारों की ख़ुशियाँ लाने बाजारों तक आते हैं।

पीकर दुख के घूँट सदा ही मुस्कानों को गाते हैं
दिल पर पत्थर रखने वाले ख़ुद पत्थर कहलाते हैं।

पीड़ा का संसार समेटे मन के हारे होते हैं
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

सूरज का प्रतिबिंब बना जो उस चंदा की छाया है
जिसने उनको जैसा देखा उसने वैसा पाया है।

सागर का खारापन यूँ भी तटबंधों तक आया है
हर सागर में आँसू वाला सागर स्वयं समाया है।

इस कारण मीठी नादिया को इतने प्यारे होते हैं
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

- श्रद्धा शौर्य


कविता- चोर दरवाजा





बहुत दिनों से वो इस रास्ते से गुजरता भी नहीं
फिर उस रास्ते पर पाऊं ही मेरा उठता भी नहीं।

उन्हें क्या पता दो बिछड़े फिर कब मिलते भी हैं
जैसे‌ उजड़े सहरा में कोई फूल खिलता भी नहीं।

उनको पुकारा तो था उन्होंने कभी सुना ही नही
वो फिर कहेंगे सब से मुझको बुलाता भी‌ नहीं।

चाहता तो हूं उन्हीं के दर पे जाकर मिल ही लूं
उनके घर जाने का कोई चोर दरवाजा भी नहीं।

- हनीफ़ सिंधी


कविता- मिल गई




ज़िन्दगी की मुझे हर ख़ुशी मिल गई,
आप जो मिल गए ज़िन्दगी मिल गई।

और अब ख़्वाहिशें मैं रखूँ क्यूँ भला,
जब मुझे रब की ही बंदगी मिल गई।

आस सँग प्यास का तब विलय हो गया,
जब समंदर में आकर नदी मिल गई।

जब निहारे कभी प्रेम से वो कदम,
अश्रुओं को नई प्यास सी मिल गई।

प्रेम ने कर लिया प्रेम का आचमन,
दिल कहे रश्मि अब तृप्ति ही मिल गई।


- रश्मि ममगाईं


राष्ट्रीय एकता को समझकर आत्मसात करना होगा।

राष्ट्रीय एकता का अर्थ है, देश के सभी नागरिकों के बीच एकता, सहयोग और समझदारी का भाव। यह देश के विकास और सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।एकता से देश की सुरक्षा मजबूत होती है।एकता से देश का विकास तेजी से होता है। एकता से सामाजिक समरसता बढ़ती है। एकता से राष्ट्रीय गौरव बढ़ता है।





राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक  है कि दूसरे से खुलकर बात करें।एक-दूसरे की भावनाओं को समझें। एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करें। व्यक्तिगत हितों को देश हित में त्याग कर आगे बढ़ें।देश के प्रति जागरूकता और समर्पण का भाव अपनाएं।सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लें।

देशभक्ति की भावना को बढ़ावा दें।विभिन्न समुदायों के बीच संबंध बनाएं।राष्ट्रीय त्योहारों को मिल जुल कर मनाएं।देश के लिए काम करें। राष्ट्रीय एकता  की कमी देश मेंअस्थिरता विकास में  बाधक हो सकती है।

आज के समय में राष्ट्रीय एकता की  बहुत बड़ी आवश्यकता है,आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए।सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए।आर्थिक विकास के लिए।देश की सुरक्षा के लिए।राष्ट्रीय एकता देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमें इसके लिए काम करना चाहिए और देश को मजबूत और सुरक्षित बनाना चाहिए।

                                         - डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह सहज़ 


कहानी- मुख्य सेवादार


             मंदिर में हो रहे भागवत कथा आयोजन का आज अंतिम दिन था। कथा व्यास जी द्वारा कथा को समाप्त कर  दिया  गया था। अब केवल पूर्णाहुति और अंतिम आरती करना ही शेष था। इसी बीच आयोजक दल  के प्रधान माइक पर पहुँच गये। यहाँ पहुँचते ही उन्होंने कथा व्यास सहित पंडाल में उपस्थित हर व्यक्ति का स्वागत किया और फिर उन्होंने आयोजक दल  के तीन-चार लोगों के नाम पुकार कर उनसे आग्रह किया कि वे कथा व्यास को सम्मान स्वरूप शाल, टोपी और स्मृति स्वरूप ,स्मृति चिन्ह भेंट करें। इसके बाद दल के प्रत्येक  सदस्य को एक-एक करके मंच पर बुलाकर कथा व्यास जी के हाथों  और  फिर एक सदस्य से दूसरे  सदस्य को सम्मान स्वरूप शाल, टोपी या दूसरा कोई स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित करवाया गय। सभी स्वयं सेवी युवाओं को भी एक-एक करके सम्मानित किया गया। फिर प्रधान जी माइक  से  हट गये और इधर दल का एक अन्य  सदस्य आकर प्रधान  जी का नाम पुकारता है फिर कथा व्यास जी के हाथों उन को भी सम्मानित करवाया जाता है। यहाँ तक कि दूसरे राज्य से  भी पांच-छह लोग जो मेहमान रूप में आये थे, उन्हें भी एक-एक करके मंच पर बुलाकर सम्मान दिया गया।





                       लगभग आधा घंटा पहले यहाँ पर जो भक्तिमय वातावरण बना हुया था। देखते ही देखते वह  वातावरण जैसे लोप हो गया था। श्रोताओं के चेहरों पर एक अजीव सा भाव देखने को मिल रहा था। शायद वे  दिखावे भरे इस कार्यक्रम को पचा नहीं पा रहे थे और भ्रमित से  महसूस कर  रहे थे। क्यूंकि यह मंदिर एक मुख्य सड़क मार्ग के किनारे पर एक शांत और सुन्दर स्थान पर स्थित है। यहाँ पर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों की स्थापना हुई है जिससे यहाँ का दैवीय वातावरण मन को आकर्षित कर लेता है। मैं भी  प्रतिदिन इसी मार्ग से अपने कर्म क्षेत्र की ओर जाता हूँ और शाम को वापिस आता हूँ। आज भी क्यूंकि कथा का समापन और भंडारे का आयोजन था। उस ईश्वर की ही अनुकम्पा होगी कि मेरा कार्य भी आज जल्दी ही पूरा हो गया था। मैं भी यहाँ आकर रुक गया था।

                                       जब तक कथा वाचन का कार्य चल रहा था ,मैं बहुत आनन्दित महसूस कर रहा था, लेकिन जैसे ही यह मान-सम्मान रुपी कार्यक्रम सामने चला, धीरे-धीरे मन उच्चाट सा होने लगा। इसलिए नहीं कि इस सम्मान समारोह से दिखावे की बू आ रही थी। शायद आजकल के आयोजनों में इस तरह के तथाकथित मान-सम्मान देना एक परंपरा बनता जा रहा है, क्यूंकि मैं हर दिन यहाँ से गुजरता हूँ और अक्सर मंदिर में माथा टेकता हूँ। कभी अगर मंदिर के अंदर न भी जा सकूं तो बाहर से ही शीश नवाता हूँ।

हर दिन देखता हूँ एक व्यक्ति सुबह-शाम वहीं मंदिर में सेवा करते हुए दिखाई देता है। आज भी कथा  पंडाल में जाने से पहले जब मंदिर गया तो वह व्यक्ति मुझे वहीं पर उसी सेवाभाव से सेवारत दिखाई दिया था। मैं जब भी इस मंदिर में शीश नवाता हूँ  तो न जाने क्यूँ मन ही मन उस व्यक्ति के सेवा और समर्पण भाव को देखकर उनके आदर में सिर स्वतः ही झुक जाता है। सम्मान और यशोगान का यह समारोह खत्म हो चुका था। माइक से  अभी तक मंदिर से और उस भागवत कथा आयोजन से  जुड़े हर व्यक्ति को मंच से सम्मानित किया जा चुका था, लेकिन उस निष्काम सेवक की  जैसे किसी को याद ही नहीं रह गई थी।

 मैं बहुत व्यथित हो रहा था। इंतजार लम्बा खींचता चला जा रहा था और मेरे अंतर्मन में  एक विद्रोही भाव जाग गया था। मुझे लग रहा था कि मैं मंच तक चला जाऊं और प्रधान जी से  चुपके से कह दूँ कि आपने सभी को सम्मानित करवा दिया ,अपना भी यशोगान करवा लिया, इसमें मुझे कोई आपति नहीं लेकिन जो व्यक्ति अपना घर छोड़ कर चौबीस घंटे मंदिर में रहकर निष्काम भाव से सेवाएं दे रहा है, क्या वह किसी सम्मान का अधिकारी नहीं है ?  पता नहीं मैं तीन-चार बार उठता-उठता बैठ गया। मन में आ जाता कि पता नी इन लोगों को बुरा लगेगा। वैसे भी मैं न तो उस भागवत कमेटी से  जुड़ा था और न ही मंदिर में माथा टेकने और प्रसाद ग्रहण करने के अलावा मेरा कोई और योगदान था। इसी बीच मेरा ध्यान भगवान् शिव की ओर गया जिनके चरणों में यह भला मानुष हर पल रहता है, मैंने मन ही मन भगवान से प्रश्न किया कि  हे ईश्वर।

क्या इस भरी सभा में इस नेक व्यक्ति की अनदेखी की अनुभूति जैसी मुझे हो रही है, किसी और को भी हो रही है क्या ? और अगर किसी और को न भी हो  रही है तो क्या मैं गलत तो नहीं सोच रहा हूँ। और अगर मैं गलत नहीं हूँ तो कृपा करके मेरी प्रार्थना को सुन लो। मेरी आस्था को आज मरने से बचा लो। हे भगवान! इन आयोजकों का ध्यान इस व्यक्ति की ओर आकृष्ट करवा दो। अगर इस सेवा भाव को आज सम्मान नहीं मिला तो फिर मेरा इश्वर की भक्ति और शक्ति से शायद विश्वास उठ जाए। मैं  मानसिक प्रार्थना करते-करते ही बीच-बीच में उस व्यक्ति को देख रहा था जो मंदिर के बाहर हर दिन की भांति आज भी अपने सेवा कार्य में व्यस्त था, उसके चेहरे पर अब भी व्ही संतुष्टि और स्नेह का भाव व्याप्त था जो हर दिन मैं सुबह-शाम देखता था। मैंने आँखें बंद कर ली थी और भगवन से मूक प्रार्थना करने लग गया था। मैं उस भीड़ से  जैसे  बेखबर हो गया था। कुछ समय बाद मुझे चेतना आई जब साथ बैठे व्यक्ति की बाजू ने मुझे स्पर्श किया। मेरी आँखे खुली तो देखा वह भला मानुष धीरे-धीरे मंच की ओर जा रहा था और मंच से प्रधान जी उनका नाम पुकार रहे थे और क्षमा याचना कर रहे थे कि उनकी भूल को माफ़ कर दें, और साथ ही कह रहे थे कि मंदिर के मुख्य सेवादार जी को कथा व्यास अपने हाथों सम्मानित करेंगे।

                       पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था। मुझे नहीं पता ये उस व्यक्ति की निष्काम सेवा का परिणाम था या मेरी उस मूक प्रार्थना का, लेकिन जो भी हो माईक सि उस पुन्य आत्मा के नाम के साथ मुख्य सेवादार शब्द सुनते और उसे सम्मानित होते देख आज भगवन के अस्तित्व में मेरी आस्था और विश्वास और भी अटूट हो गया।


                                                                             - धरम चंद धीमान



19 December 2024

भारत का अंधकारमय भविष्य!




कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि भारत का भविष्य अंधकार में है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुझे वर्तमान में भारत वैचारिक रूप से विकलांग नजर आ रहा है।  हम अपनी जनसंख्या वृद्धि नहीं रोक पा रहे हैं और लगातार कम होते जंगलों को नहीं रोक पा रहे हैं और इसके अलावा हमारे देश में लगातार खेती कम होती जा रही है।  इतना ही नहीं बल्कि धार्मिक वैचारिकता भी हमारे देश से गायब होती दिखाई दे रही है। आज हमारे तथाकथित साधु संतों ने धर्म को व्यापार बना दिया है। एक वक्त हुआ करता था जब भारतीय समाज आर्थिक, वैचारिक और धार्मिक रूप से काफी समृद्ध था। मगर वक्त की सुई ने भारत से ये सब छीन लिया है। भारतीय समाज से सुकून गायब हो गया है। हर व्यक्ति पैसे के पीछे पागल है और अंधाधुंध पैसा कमाने के बावजूद भी लोगों को शांति नहीं मिल पा रही है। क्या कारण है कि आज भारतीय समाज भटका, बंटा और अस्वस्थ नज़र आता है। शायद हमारे समाज ने मेहनत करना बंद कर दिया है या फिर इन आधुनिक तौर-तरीकों और संसाधनों ने हमें बिगाड़ दिया है। मैं दावे के साथ कहता हूं कि आज भारत का कोई भी घर ऐसा नहीं होगा जहां महीने में कम से कम 200-500 की दवाई नहीं आती होगी। अगर नहीं आती है तो वह सिर्फ मजदूर या गरीब होगा जो बीमारी का इलाज नहीं कर सकता है या फिर वह बीमारी को सीरियसली लेता ही नहीं है।

खैर! भारतीय समाज जिस दिशा की ओर आगे बढ़ रहा है उस दिशा को देखकर मुझे सामने सिर्फ अंधकार नज़र आता है। उस अंधकार को देखकर मुझे डर लगता है कि कहीं हम अपनी धार्मिक, पौराणिक और आर्थिक समृद्धि को ना खो दें। भारतीय समाज से सामाजिक चिंतन खत्म हो गया है। जातिवाद और पूंजीवाद की खाई गहरी हो गई है। कभी जो भारत प्रकृति का धनी था, वह लगातार प्रकृति‌ विनाश कर अपनी कब्र खोद रहा है। वह दिन दूर नहीं जब हिंदू समाज को अंतिम संस्कार करने के लिए लकड़ी तक उपलब्ध नहीं होगी क्योंकि जिस तेजी से भारत से जंगल खत्म हो रहे हैं उससे तो यही लगता है।

बाकी सोशल मीडिया के इस दौर ने लगभग हर भारतीय को आलसी, अय्याश और नचनिया बना दिया है। सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता के नाम पर हम सिर्फ सोशल मीडिया पर सकारात्मक पोस्ट कर या स्टेटस लगाकर अपनी आत्मा को संतुष्टि दे रहे हैं। आगामी वर्ष में एक विशाल धार्मिक मेला लगने वाला है। इस मेले को कभी धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक चिंतन के रूप में देखा जाता था, मगर आज इसे सिर्फ नहाने का उत्सव बना दिया गया है। वैसे यह मेला पवित्र नदियों के संगम किनारे आयोजित होता है, पवित्रता तो दूर की बात संगम में नदियां नाले जैसी हो गई है। कभी जिन साधु संतों के ऊपर सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक चिंतन की जिम्मेदारी थी, आज वह साधु संत सिर्फ धर्म के नाम पर अपने एशो-आराम पूरे कर रहे हैं। भारत की इस विकट स्थिति को देखकर मैं गंभीर चिंता में हूं। मेरी यह चिंता आपको जायज लगती है या नहीं! मुझे नहीं पता, मगर आप एक भारतीय हैं तो मैं यह विश्वास के कह सकता हूं कि आप अपने सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक चीजों से संतुष्ट नहीं होंगे।

                          - दीपक कोहली



17 December 2024

तबला सरताज जाकिर हुसैन




तान पर जब उनकी उंगलियां थिरकती,
सुरों की गंगा हर दिल में बहती।
संगीत के जादूगर, तबले के उस्ताद,
जाकिर हुसैन हैं भारत का परचम उज्ज्वल।

पिता का आशीर्वाद, उस्ताद अल्ला रक्खा की छाया,
संगीत के आंगन में बचपन से पाया।
तबले की थाप से जग को झुकाया,
हर मंच को अपनी साधना से सजाया।

सुर और ताल का अनुपम संगम,
दुनिया में गूंजा भारत का संगम।
फ्यूजन का जादू, परंपरा का मान,
जाकिर हुसैन का संगीत है वरदान।

हर थाप में बसती है आत्मा की पुकार,
हर राग में छिपा है उनका संसार।
सादगी, प्रतिभा, और संगीत का नाता,
जाकिर हुसैन ने विश्व को समृद्धि से नहलाया।

संगीत के इस साधक को नमन हमारा,
जिन्होंने तबले को बनाया विश्व का सितारा।
गुरु की विरासत को सहेजते चलो,
जाकिर हुसैन के सुरों से जीवन महकने दो।


- डॉ.सारिका ठाकुर “जागृति”


15 December 2024

कविता- कोरे पन्ने किताब के




जिंदगी ने आज कोरे पन्नों को पढ़ा है,
 जिस पर ना कुछ लिखा था।
बस चारों तरफ सफेद ही सफेद नजर आता था।

जिंदगी में जब धीरे-धीरे से पढ़ना शुरू किया,
 तब बहुत कुछ समझ में आया।
जब कलम हाथ में पकड़ी ,
बहुत कुछ हकीकत लिख डाली।

कुछ सच्ची कुछ झूठी ,
न जाने कितना कुछ,
इसमें लिख डाला।
कुछ सच्ची जीवन की घटना है ,
इसमें लिख डाली हैं।

कुछ झूठी खबरों के इसमें आरोप लगा डाले,
 एक ओर कागज का पन्ना,
 हर एक की जिंदगी में कुछ ना कुछ मोड़ लेकर आता है।

कभी तो किसी को कुछ बनाकर छोड़ देता है,
 कभी उसको उसमें ही उलझा कर रखता है।
 यही तो जीवन की सच्चाई है ,
जो हर एक को समझ नहीं आती है।
 जिंदगी ऐसे ही कोरे पन्ने की तरह खाली है ।

जब जिंदगी की हकीकत ,
हर एक इंसान को समझ आती है।
तब वह जिंदगी में कुछ तो अच्छा कर पता है,
 कुछ मुसीबत से लड़ पता है।
उसका हल खोज पता है ,
तब वह धीरे-धीरे सफल हो पता है।


                                                   - रामदेवी करौठिया



कविता- भारत के लोगों




महान बने ये भारत अपना 
भारत के लोगों तुम सुन लो,
ताँता एक इस तरह बुन लो।

न  हिन्दू कहलाए कोई, न कोई मुसलमान,
भारतीय कहलाने में ही समझें सब अपनी शान।

               सभ्य हों, शिष्ट हों  सब जन,
               गंगा की तरह निर्मल हो सबके मन।

               अविरल वहे सबके हृदय में स्नेह बयार,
               शांति और समृधि की आये नित नई बहार।

जवान रहें सीमा पर सजग और सतर्क,
दंगे-फसादों से न बने देश अपना, नरक।

हर कोई निष्ठा से करे अपना-अपना काम,
आलस्य खाली हाथ रहे ,मेहनत को ही मिले इनाम।

                निस्वार्थ भाव से सेवा करें नेता, क्या अभिनेता,
                हृदय में बसे सबके बस पूजनीय भारत माता।

                हर भारत बासी की हो स्वच्छ ,सुन्दर छवि,
                है दमकता ज्यूँ  नील गगन में बेदाग रवि।

बार-बार इस धरा पर महापुरषों के हो अवतार,
आदर्श बन मानव जाति के लिए जो करें सबका उद्धार।

चारों ओर छाई रहे हरी-भरी हरियाली,
हर दिन हर घर में मनाई जाए रोज दिवाली।

                 बच्चा-बच्चा पाए रोटी ,स्वास्थ्य और शिक्षा ,
                 मजबूर रहे न कोई ,न माँगे कोई भिक्षा।

                 साकार हो जाए फिर शहीदों का वो चिरसंचित सपना,
                 पर्याय स्वर्ग का बन , महान बनें ये भारत देश अपना।


                                                          - लता कुमारी धीमान



संबंधों से संबंधित एक दृष्टिकोण यह भी




किसी भी संबंध का आधार आवश्यकता,प्रेम, सामाजिक या इनका मिलाजुला रूप कुछ भी हो सकता है। हमारे परिवार, दोस्त, रिश्तेदार, कार्यालय, स्कूल या व्यापार इत्यादि हर जगह आपसी संबंधों की समझबूझ से ही जीवन चलता है। रिलेशनशिप या संबंध किन्हीं दो व्यक्तियों या किसी एक समूह का दूसरे समूह के साथ भी हो सकता है। संबंध प्रायः वहीं बनते हैं जहां वैचारिक समानताएं हों, एक दूसरे के उद्देश्यों की पूर्ति हो। ये संबंध आजीवन चलें आवश्यक नहीं,ये उद्देश्य पूर्ति के साथ समाप्त भी हो सकते हैं। इन संबंधों को कोई नाम नहीं दिया जा सकता। लेकिन परिवार, रिश्तेदार या दोस्त से बने संबंधों को नाम दे सकते हैं। 


एक संबंध प्रेम का है जो स्त्री और पुरुष के बीच हो सकता है, और वह शारीरिक आकर्षण के कारण भी हो सकता है और आत्मिक स्तर पर भी हो सकता है। इस तरह के संबंधों को कोई विशेष नाम नहीं दे सकते।लेकिन फिर भी इसमें लोग एक दूसरे से जुड़ सकते हैं और निभा सकते हैं। शारीरिक आकर्षण से बना संबंध शरीर से शुरू होकर शरीर पर ही खत्म हो जाता है इसे प्रेम की पूर्णता नहीं कह सकते और न ऐसे संबंध ज्यादा समय तक टिकते हैं।

आत्मिक स्तर पर बना संबंध स्थाई होता है, जो हृदय से बनता है,वैचारिक समानता, समर्पण से बनता है। ऐसे सम्बन्धों में कोई सामाजिक बंधन नहीं होता और निस्वार्थ संबंध बनता है।अपनी अपनी जिंदगी में ऐसे व्यक्ति स्वतंत्र हैं और उन्हें संबंध में बंधे होते हुए भी कोई बंधन महसूस नहीं होता। यह संबंध प्रेम की मजबूत नींव पर आधारित होता है, और आम संबंधों से बहुत ऊपर उठ जाता है, आत्मिक स्तर को छूता है। वहां शरीर प्राथमिक नहीं रहता, अपितु आत्मा प्राथमिक रहती है, एक जैसी विचारधारा और आत्मिक संबंध में प्रेम परिपक्व होता है और शारीरिक स्तर पर भी फलता फूलता है। प्रेम पूर्ण संबंध आजीवन चलता है जहां तर्क वितर्क तो हो सकते हैं, लेकिन कुतर्क के लिए कोई जगह नहीं। वैचारिक आदान प्रदान एक दूसरे की कमी को पूरा कर देते हैं,क्योंकि प्रेम एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना के बिना नहीं हो पाता।

हालांकि कुछ लोगों का कहना यह भी है कि प्रेम में बंधन नहीं, मुक्ति होती है।किंतु ,वास्तव में देखा जाए तो प्रेम का बंधन तो होता ही है अन्यथा एक दूसरे से कोई कैसे जुड़ सकता है। लेकिन ये बंधन आत्मिक स्वीकृति के साथ होता है,समर्पण के साथ होता है ,एक दूसरे की भावनाओं को सम्मान देने से होता है तो आनंद की अनुभूति इतनी अधिक होती है कि वह बंधन का नहीं अपितु, मुक्ति का बोध कराता है।


जिस जगह संबंध आत्मिक नहीं बनता,समर्पण नहीं रहता उसे प्रेम संबंध तो नहीं कह सकते। वैचारिक मतभेद हों और एक दूसरे से अपनी बात मनवाने पर ऊर्जा लग रही हो, तो अच्छे से अच्छे संबंध टूट जाते हैं। तब इस बंधन में किसी को लग सकता है कि उसकी आज़ादी छिन रही है, या उस पर अनावश्यक अधिकार जताया जा रहा है। ऐसे में यदि दोनों में से किसी एक को भी बाध्यता महसूस होती हो, तब ये सोच आपसी द्वेष को जन्म देती है। जबकि आत्मिक रूप से जुड़े रिश्तों में कुछ मांगा नहीं जाता बल्कि आत्मिक दृष्टि से विचार करके एक दूसरे की भावनाओं की कद्र की जाती है और उनको समझा जाता है। आत्मिक प्रेम संबंधों में असली आज़ादी उन विचारों से मुक्ति है जो आत्मिक रूप से रिलेशनशिप में जुड़े लोगों को अलग करने की क्षमता रखते हैं। 

एक दूसरे की भावना को समझना और एक दूसरे की आत्मा आहत न हो, उसका ध्यान रखना ही प्रेम है। ऐसे में आप स्वयं को कभी अकेला महसूस नहीं करते।आपको अपने ही समान किसी अन्य के ,जो आपको समझता है,आपके सुख दुःख का साथी है,हमेशा साथ होने का सुखद एहसास बना रहता है। ऐसे संबंध में वादे कसमें भले ही न खाई जाएं लेकिन उस रिलेशनशिप अथवा संबंध का क्या अर्थ है जिसमें ये एहसास भी न हो कि साथी के जज़्बात क्या हैं, एक दूसरे से मन की बात खुल कर स्पष्ट तौर से न कि जा सके न समझी जा सके, तो फिर कौन सा ऐसा एहसास है जो दो लोगों को आपस में एक रिश्ते में जोड़े रखेगा ? 

क्योंकि रिलेशनशिप में जुड़ाव होने पर दोनों व्यक्ति एक दूसरे से उम्मीद रखते ही हैं कि उनके प्रेम में ऐसा कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न न हो जो उन्हें जुदा कर दे। शारीरिक रूप से साथ रहना जरूरी नहीं लेकिन आत्मिक और वैचारिक रूप से साथ रहना आवश्यक है। आज़ादी शब्द का अर्थ भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग हो सकता है। देखना यह है कि उसमें सकारात्मकता उभर के आए जिसमें ये एहसास खो जाए कि वे किसी विवशतावश जुड़े हैं।


                                                        - जितेंदर पाल सिंह 'दीप'



हिमालय के सान्निध्य में




तुम्हारे मौन में वह गुंजन है
जो समय के पार कहीं ठहर जाती है,
और मैं, अपनी विह्वलता लिए
तुम्हारी परछाईयों के वृत्त में घूमती हूँ
तुम कितने असीम, कितने अपरिचित
पर फिर भी, मेरे हर शब्द, हर आहट के स्रोत
मेरे अस्तित्व पर तुम्हारे हस्ताक्षर 

तुम्हारी चुप्पी में
कोई कथा ठहरी है 
जिसे किसी प्राचीन ऋषि ने अधूरा छोड़ दिया था 
किसी प्रतीक्षा का अंत
या शायद आरंभ

मैं तुमसे प्रश्न करती हूं 
और तुम उत्तर नहीं,
बस एक दिशा देते हो

यदि मैं इस प्रश्न-पथ पर भटक जाऊं 
यदि मेरी व्यथा के बिंदु मुझे बांध लें
तब तुम्हारी शांत श्वास मुझे पुकारेगी 

तुम्हारे सर्द पत्थरों की ऊष्मा
मुझे मेरे भीतर का ताप भुला देगी

हे हिमालय,
तुम्हारे सानिध्य में
वह अनवरत हलचल है
जिसमें अनंत स्थिरता है 
मैं वहां सब कुछ खोकर
स्वयं को पुनः रच लूंगी 

                                                  - अनुजीत इकबाल


पांच रचनाकार और पांच कविताएं




जिसे आसमां तक  उठा कर चले।
नज़र वो  मुझी  से  बचा कर चले।

नहीं  छोड़िए  साथ उसका  कभी,
सभीसे जोमिलकरमिलाकर चले।

वफ़ा जिन से करते  रहे रात दिन,
वही  दिल  हमारा  दुखा कर चले।

सदा  कीजिए  बात उसकी  मियाँ,
जोसहरा में भीगुल खिलाकर चले।

मिला कर चलो उस से काँधा सदा,
जो परचम को ऊँचा उठा कर चले।

                           - हमीद कानपुरी

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मैं लिखूं ग़ज़ल तेरी शबनमी आंखों में डूबकर।

याद करके ज़ालिम और मुझको सज़ा न दे।
तेरे वादों का ऐतबार नहीं मुझको दग़ा न दे।

पुरानी मुहब्बतों के चिराग़ फ़िर से न जल उठें।
वो मस्त आंखों से शराब मुझको पिला न दे ।

मेरी आंखों में तेरी तस्वीर अब भी है बनी हुई।
मेरी कोई हरकत राज़ ए दिल सबको बता न दे।

ख़्वाब तेरे ही बसा रखे हैं,इन बहती आंखों में।
लहरें हक़ीक़त की आंखों में कंकर छुपा न दे।

तस्वीर तेरी बना रहा हूं, ख़ुद से बेख़बर हो कर।
डर है ज़माना आकर मुझसे तुझको छुड़ा न ले।

मैं लिखुं ग़ज़ल तेरी शबनमी आंखों में डूबकर।
ग़ज़लों के मेरी, शेर कोई "मुश्ताक़" चुरा न ले।

                                   - डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह

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मेरा मुर्शिद

मेरी महफिल में अगर
तुम आओ तो
सारे शहर के गम ले आओ
उन गमों को
मेरे मुर्शद की एक मुस्कुराहट से
घायल कर जाओ।

मेरी महफिल में अगर
तुम आओ तो
सारे शहर के दर्द भरे अश्क़ ले आओ
उन अश्कों को
मेरे मुर्शद की एक निगाह से
कायल कर जाओ।

मेरी महफिल में अगर
तुम आओ तो
सारे शहर के जख़्म ले आओ
उन जख्मों को
मेरे मुर्शद के एक नाम से
भरकर  चले जाओ।


                           - डॉ.राजीव डोगरा


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यह चार लोग

यह चार लोग ही हैं दुनिया में
चलती है जिन की सरदारी
झूठे बेईमान चुगलबाज और लालची
इनसे डरती है दुनियां सारी

जब भी करना होता है शुरू कोई काम
सब यही कहते हैं चार लोग क्या कहेंगे
इन चार लोगों के किस्से हैं हर जुबान पर
रहना पड़ेगा इनके साथ चाहे यह कुछ भी करेंगे

झूठा झूठ फैलाएगा
छोटी छोटी बातों को बड़ा बताएगा
रिश्तों में पैदा कर देगा दरार
अपना काम करके निकल जायेगा

बेईमान बेईमानी से बाज नहीं आएगा
मेहनत से कभी नहीं कमाएगा
हेराफेरी से कर लेगा दौलत इक्कठी
पर उसको साथ नहीं ले जा पायेगा

चुगलबाज भी कम नहीं किसी से
इधर की बात उधर मिर्च लगाकर बताएगा
दूर से तमाशा देखेगा घर जलाकर
भाई को भाई से लड़ायेगा

लालची लालच में आ जायेगा
राज की बात भी दूसरों को बताएगा
बदनाम करेगा ज़माने में
इज़्ज़त ख़ाक में मिलाएगा

हम सब के अंदर ही हैं यह चार लोग
अपने अंदर झांक कर देखो जरा
मन को बहुत सकूँ मिलेगा छोड़ दो बुराई
दूसरों का भला कभी करके देखो जरा


                            - रवींद्र कुमार शर्मा

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क्यों ? यूँ जताते हो अपनी नाराजगी

क्यों? यूँ जताते हो अपनी नाराजगी,
जब लौटकर महायुती में ही आना है।
क्या? ये बीमारी भी एक बहाना है,
फिर लौटकर इसी घर ही आना है!
अपरिपक्व कह रहा यह जमाना है।

क्यों? यूँ जताते हो अपनी नाराजगी,
जब लौटकर महायुती में ही आना है।
अब न जाना सतारा नेटवर्क है खटारा,
वे दिल्लीवाले हैं अब न खोलेंगे पिटारा!
मुश्किल में पाओगे अजब ही है नज़ारा।

क्यों? यूँ जताते हो अपनी नाराजगी,
जब लौटकर महायुती में ही आना है।
छोड़ दो जिद अब नहीं रही है वह बात,
उनका प्रचंड है बहुमत छूट जाएगा साथ!
ऐसा ना हो कहीं मलते रह जाओ हाथ।

क्यों? यूँ जताते हो अपनी नाराजगी,
जब लौटकर महायुती में ही आना है।
सोच लो, अगर यही रवैया रखना है,
नेता बनकर खुद को भी परखना है!
हा रिक्त है नेता प्रतिपक्ष का भी स्थान,
उस पर हो जाओ एकनाथ विराजमान।

                            - संजय एम. तराणेकर

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