इक बहु जो तुम्हारे घर आई थी,
तुमने कहा उसे की मुझे अपनी मां मानो,
लेकिन इतिहास गवाह है की
इक सास ना सिर्फ सास ही होती है,
मां नहीं बन सकती, सासु मां ने सदा सिर्फ
अपने बच्चों को ही अपनी धड़कन है माना।
बहु ने घर को सजाया, घर को समेटा,
यहां तक की खुद को खो ही दिया, सबके हर फैसले में,
लेकिन फिर भी किसी के दिल में तनिक भी जगह ना पाई,
कभी भी इक बहु की खुशियाँ किसी को तनिक भी रास नहीं आई।
सासु मां ने अपने बेटा - बेटी को ही हमेशा अपनी ढ़ाल है माना,
हर कदम पर बस उनका ही बस पक्ष है लिया,
पर बहु के हक में कभी भी एक शब्द नहीं बोला,
क्या औरत होने के नाते ही सही कभी
आपने उस बहु का दर्द समझा ?
सासु मां ने कभी देखा नहीं बहु को खुश होते हुए,
ना देखा गया उसे आगे बढ़ते हुए,
इक बहु को वो प्यार, ममता की जो उम्मीद थी इक सास से,
वो कभी पूरी हुई ही नहीं,
बहु को पहले दिन से ही पराया समझा गया,
कभी भी ना किसी बात पर सराहा गया।
सासु माँ, क्या ये सच है ?
जो बहु ने तुम्हारे घर को अपना समझा था,
वो घर कभी उसका बन ही नहीं पाया,
क्यूंकि तुम उसे कभी दिल से अपना ही नहीं पाई,
तुम्हारे दिल में हमेशा अपनो की ही तस्वीर बसी रही।
क्या कभी तुमने सोचा,
इक बहु भी कुछ है, कुछ महसूस करती होगी,
वो भी एक इंसान है, एक बेटी है किसी और की,
और अब वो है इक माँ भी,
लेकिन तुम्हारी आँखों में तो लगी है पट्टी स्वार्थ की, अपनो की,
बस खुद के बच्चें ही हैं आंखों में और दिल में समाए,
और इक बहु का कोई आस्तित्व ही नहीं।
कभी तुमने सोच विचार किया की
तुम भी तो इक बहु ही हो इस खानदान की,
फिर क्यों बहु - बहु करती हो !
नहीं है ये अगर ये मेरा घर,
तो आप भी क्यों मेरा घर-मेरा घर करती हो।
- रजनी उपाध्याय
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