साहित्य चक्र

09 December 2024

लघुकथा- परछाई

बसंत का मौसम शुरू ही हुआ था। नीरा,परिवार और मित्रो के साथ पिकनिक पर गई है। मौसम का आनन्द लेते हुए, नीरा अकेले ही जंगल की ओर चल पड़ी। अचानक उसके पैर थम गए। 

वो जहां खड़ी है, वहां जंगल घना नहीं है। डूबते सूरज के रंग सा, फूलों से भरा एक पेड़, नीरा ठीक उसके पास जाकर झरे हुए फूलों कोहाथों में उठाकर नम आंखों से देख रही है। 





फागुन का माह, हल्की हवाएं चल रही हैं। पेड़ पर लगे फूल नीरा को छू कर जमीन पर गिर रहे है। शाम के चार ही बजे थे। ढलती धूप में, सुनहरी पीली मिट्टी पर पेड़ की तिरछी छांव ने नीरा को अपनी बाहों में भर लिया। नीरा सिसक कर रोने लगी। 

तीन चार साल की छोटी सी उम्र में नीरा और दादी का साथ छूट गया था। दादी बीमार थी पर दुलार में कभी कोई कमी नहीं थी। पलाश के फूल दादी को अति प्रिय थे। तब से हर फागुन नीरा की निगाहे पलाश ढूंढती हैं।





आज मानो इस पलाश की परछाई में उसकी तलाश पूरी हुई। उसे बड़ा सुकून मिला। जाने कब घंटों बीत गए। इतने में उसकी सहेलियों उसे पुकारते हुए वहां पहुंची। नीरा जमीन पर बैठी, पलाश की पेड़ पर सर टिकाए सोई हुई थी।


                            - सुतपा घोष, दुर्गापुर, पश्चिम बंगाल


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