जून महीने की तपती दोपहर थी। सूरज अपनी पूरी ताकत लिए आसमान में चमक रहा था और गली में सन्नाटा पसरा था। सब कुछ थमा-थमा सा लग रहा था, सिवाय डाकिए के जो अपनी साइकिल पर घंटी बजाता हुआ हर घर के सामने से गुज़र रहा था।
किसी को कुशल क्षेम जानने के लिए पत्र का इंतजार था, तो किसी को परीक्षा परिणाम का डर, किसी को बिल की चिंता खाए जा रही थी तो कोई विरहन परदेश में रह रहे पिया की प्रेम पाती को पाने के लिए आकुल थी। गली का प्रत्येक व्यक्ति बस डाकिए की घंटी से चौकन्ना हो जाता था।
आज शर्मा जी भी दरवाजे की चौखट तक दौड़े दौड़े आए कि शायद संजय का कोई पत्र आया हो। संजय उनका बेटा,, जो भारतीय सेना में दो साल से अपनी सेवाएं दे रहा था। पूरे गांव में शर्मा जी बड़ी शान से कहते थे, कि मैंने अपने बेटे को भारत मां की रखवाली के लिए भेजा है। संजय का पत्र कई दिनों से आया नहीं था इसलिए चिंतित भी थे, लेकिन डाकिए को देखकर आशा की किरण नज़र आ रही थी।
डाकिया भी थोड़ी देर रुक कर शर्मा जी के हाथ पर चिट्ठी रखकर चला गया। शर्मा जी जल्दी-जल्दी चश्मा टटोल कर पत्र खोलने लगे। शुरू की चार पंक्तियां पढ़कर ही वे वहीं चौखट पर औंधे मुंह गिर गए। परिवार वाले भी घबरा गए कि आखिर चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा था? पढ़ कर पता चला कि संजय अपनी धरती मां के लिए कुर्बान हो गया था।
- वसुंधरा धर्माणी
No comments:
Post a Comment