साहित्य चक्र

30 November 2024

नदी और मैं





नदी के भीतर चलती मैं
बहते जल संग बहती मैं।
स्वाँ नदी, बचपन और मैं
नदी में डूबा मन और मैं
कंकड़-पत्थर, रेत सी मैं
तुम बिन बंजर खेत सी मैं
अंजान डगर पर चलती मैं
बहते जल संग बहती मैं।
ना कोई ओर ना कोई छोर
यादों का बादल घनघोर
भीग गए अखियों के कोर
हाथ ना फिर भी आई डोर
साथ समय के ढलती मैं
बहते जल संग बहती मैं।
दूर पहाड़ी पर इक गाँव
जहाँ की ठंडी-ठंडी छाँव
स्वप्न दौड़ते नंगे पाँव
मिली कहीं न ऐसी ठाँव
प्रेम के पंखे झलती मैं
बहते जल संग बहती मैं।
वो देखो आमों का बाग़
जहाँ खेलते थे हम फ़ाग़
मीठे सुर में गाते राग
खूब भड़कती मन की आग
उसी प्यार में जलती मैं
बहते जल संग बहती मैं।
थाम लूँ कुछ यादों के पल
आँख में भरकर नदी का जल
बैठ निहारूं गुज़रा कल
फिर भी मिला न कोई हल
हाथ रह गई मलती मैं
बहते जल संग बहती मैं।

- मनजीत शर्मा 'मीरा'


29 November 2024

मुझे गाना नहीं आता




गाना नहीं आता मुझे

नहीं गाना भी नहीं आता

यह बात

लगभग हर बात के बारे में है -

जैसे कि नेल पेंट लगाना नहीं आता मुझे

नहीं लगाना भी नहीं आता

पढ़ाना नहीं आता मुझे

नहीं पढ़ाना भी नहीं आता

कविता लिखना नहीं आता मुझे

नहीं लिखना भी नहीं आता

जीवन में जो कुछ सम्भव हुआ

वह हुआ उस सम्भावना की तरह

जो नहीं आने और नहीं आने के बीच खुलती है

एक द्वार की तरह

जैसे पानी के मौन और धूप की मुखरता के

ऐन बीचोंबीच खिलता है

एक कमल

ठीक से प्यार करना नहीं आता मुझे

नहीं प्यार करना भी नहीं आता

मेरे स्वप्नों की धूप में रखी हैं पानी की कविताएँ

छाती में सहस्त्रदल खिलते हैं !


- बाबुषा कोहली



बुआ-भतीजी



घर की आंगन की
धूप सी होती है बुआ
घर के आंगन में
चिड़िया सी
चहकती है बुआ
भतीजी, भतीजे के
जन्म के बाद मिलता है
उसे प्यारा सा
संबोधन "बुआ"

बुआ होती है
बच्चों की जान
जब तक वो
कुंवारी होती है
मां से ज्यादा वो
करीब होती है
हम सीखते है
कैसे संवारते है
अपने आपको
और बुआ
हम में जीती है
अपना बचपन

बुआ की
भतीजी के
साथ जोड़ी
जैसे हल्दी
के साथ रोली
बुआ बोले मेरी
भतीजी सुंदर
भतीजी बोले
मेरी बुआ तू सुंदर
मिलती है

छबि तेरी मेरी
एक मिट्टी से
जैसे प्रतिमा हो गढ़ी
एक उम्र के बाद
बन जाती है
दोनों सखियों सी
बात करे अपनी
पुरानी गलियों की
दुनिया भी कहे
निराली है
इनकी जोड़ी
बूझो तो जाने
कौन बुआ कौन भतीजी


- डॉ विनीता श्री


28 November 2024

कविता- प्रेम



अक्सर सोचती!
जिन आँखों में तुम्हारे लिए सिर्फ प्रेम भरा हो
कैसे भर सकते हो तुम उनमें पानी
कैसे नहीं देख पाते
छोटी सी बात पर चिड़िया की तरह फुदकने वाली लड़की
विलख भी सकती है छोटी सी ही बात पर
तुम्हारा होना
बस होना भर तो नहीं हो सकता उसके लिए
जो खिल - खिल उठती है तुम्हारे मुस्कराने भर से
माँगा क्या तुमसे?
प्रेम! प्रेम! बस प्रेम!
हाँ! प्रेम! बस प्रेम!
तुम नहीं समझते प्रेम ना होने के दुःख से
बड़ा दुख है प्रेम होने का भ्रम होना
कैसे नहीं समझते? जहाँ प्रेम है
वहाँ नहीं होता किसी और चीज का स्थान
किसी और भाव का भी नहीं
सच कहूं तो हर साथी को कुछ भी होने से पहले
होना चाहिए बस प्रेमी
सुना! बस प्रेमी!
प्रेम में खूबसूरत लगती है ये दुनिया
प्रेम में स्वयं से विलग नहीं लगता साथी
प्रेम में प्रेममयी लगती है वो भी कविता
जिसमें विलुप्त हो प्रेम शब्द।


- सृजिता



27 November 2024

जब तुम याद आते हो



अश्क अक्सर आंखों में आकर आंखों में समा जाते हैं।
जब तुम याद आते हो तो अश्क भी बह नहीं पाते हैं।

ये अश्क शायद तुम्हारे अक्स से रुबरू होना चाहते हैं।
जब तुम याद आते हो,जाने क्योंधड़कन भी बढ़ जाती है।

शायद तुम्हारे आने की दस्तक पूर्वगामी ही सुन लेती है।
जब तुम याद आते हो, यह फिज़ाए महक सी जाती है।

तुम्हारे आने की ख़ुशबू पवन इन वादियों में फैलाती है।
जब तुम याद आते हो सांझ बाती विरह में जल उठती और देखो,
इस पागल पतंगें को नियति जान मंडराता है।

जब तुम याद आते हो,शंख ध्वनि गुंजायमान होती है।
और यह हृदय, संध्या आरती से विचलित हो उठता है।

और मेरे कान्हा को मेरी यह धृष्टता तब रास नहीं आता।
जब तुम याद आते हो ,मेरा मन अस्थिर होता जाता है।

मैं मनुष्य जन्म के अंतिम उद्देश्य से विमुख हो जाती हूं।
तुम्हें पाने का मेरे मन में न कोई उद्देश्य न कामना है।

न पाकर जो पाया है,तुलना नहीं वो तो सुफियाना है।
जब तुम याद आते हो, ईश्वर का सानिध्य मिल जाता है।


- दीपा


तुम बनो सौभाग्य मेरा


आतुरता तुम्हे मुझसे मिलने पर विवश कर देती थी।अक्सर दूर गगन में जब चिड़ियों के घर लौटने का समय होता ,जब रवि अपनी रश्मियों को अपनी बाहों में समेटे अश्व रथ पर सवार होकर अपने लोक के लिए प्रस्थान करते ,जब शशि हौले से बादलों की ओट से अटखेलियां करता तब उस काल में तुमसे भेंट होने की संभावनाएं बढ़ जाती।तुम्हे आमंत्रित कर आग्रह पूर्व बुलाना मानो जैसे तुम खुशियां साथ लाने वाले हो,मानो तुम्हारा आना किसी उत्सव के हो जाने जैसा हो।फिर प्रेम आसक्ति में डूबे दो हृदय इस लोक को भूलकर आलौकिक लोक में विचरण करने सरीखे भाव लिए खोए जा चुके हो।





लोग कहते है क्या मिला मुझे तुमसे प्रेम करके।उनकी नजरों में बौराई सी पगलाई सी मै क्या ही उत्तर देती और क्यों ही देती। मैं तो इतना ही जानती हूं प्रेम करके कुछ बचा ही नहीं पाने को,तुम खुद भी नहीं।तुम्हे चाहना था चाह लिया। तुम चाहिए ऐसा कभी नहीं चाहा।मैं नदी के समान बहती रही और अंत में तुम्ही में समा गई।अब मेरी धारा को मै पीछे कैसे मोड़ सकती हूं।

एक दिन जब मेरा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा ।जब मैं इस लोक से उस लोक की यात्रा का आरम्भ करूंगी तब तुम्हारा प्रेम मेरे साथ रहेगा।तुम्हारा प्रेम ही मेरा सौभाग्य है। मैं सौभाग्यवती जाना चाहती हूं।इतना अधिकार तुमसे नहीं मांग रही हूं अपितु तुम्हे मेरे जीवन में सौभाग्य रूप में भेजने वाले ईश्वर से मांग रही हूं।

सुनो माना कि अंतिम समय में मेरी मांग सूनी रह जाएगी।लेकिन तुम आना, जरूर आना ।घर के मंदिर से रोली लेकर और कहना ये ईश्वर का प्रसाद है और इस स्त्री का सौभाग्य कि अंत समय में इसके माथे पर सज कर इसका सौभाग्य बढ़ाएगा। तो लगा दीजिए इसके सूने माथे पर सौभाग्य का टीका। और मैं मान लूंगी कि मेरा सौभाग्य तुम हो।

- पारुल अग्रवाल मित्तल

स्नेहिल पवित्र





बैठी हूँ निर्भीक सामने
उत्खनन की मुद्रा में,
मैं! लिए संवाद की कुदाल
कुरेद देना चाहती हूँ
कई सख्त मनो की परतें....

मुझे अभी भी तलाश है
उन मधुर अहसासों की,
जो खो गयी हैं कहीं
बेहद गहरी तहो में....

अंकुरण लेना चाह रही हैं
अब अमूर्त अभिलाषाये
और अदृश्य भावनायें,
स्नेहिल पवित्र रूह से....

ऊसर से कुम्हला चुकी
शून्य को निहारती हुई
जो ये मानवीय संवेदनायें हैं,
नितांत अकेली व असहाय
अब! तर हो जाना चाहती हैं....

सुसुप्त पडी अपेक्षाएं व खुशीयो को
पा लेना चाहती हैं सदा के लिए!
ये !अंतरंग मन की रेखाएं,
अब संवादों के वेग से ही।

- दया भट्ट


26 November 2024

कविता- आदमी

(वर्णमाला का क्रमवार प्रयोग कर लिखी एक कविता)


अदना-सा है आदमी
आइना दिखाती रोज ही जिन्दगी
इतिहास को बदलने की बातें करता
ईमान पर भी कायम न रह पाता आदमी !
उम्र-भर करता गिले-शिकवे
ऊल-जलूल करता हरकतें
ऋषि बनने का रचता ढोंग
एकाधिपत्य के पीछे दौड़ता आदमी!
ऐंठ इसमें गजब की पर
ओहदे को सलाम करता
औसतन रोज ही मरता ऐसे
अंत को भी भूल जाता आदमी!
ककहरा बिन सीखे ही
खखोरता अपना भविष्य
गणित बिन समझे ही
घटा-जमा में रोज उलझता आदमी!
चकाचौंध में हुआ मस्त
छकाने की पड़ गई लत
जमीर भी अपना बेच आया
झाड़ पर खुद को चढ़ाता आदमी!
टकराव में बिता दी जिन्दगी
ठहराव न पाया कहीं
डगर पकड़ी आड़ी-तिरछी
ढपली खुद ही बजाता आदमी!
तख्तोताज की रखता ख्वाहिश
थापी देता खुद को ही
दलदल में धंसता जाता
धर्म को भी न बख्शता आदमी !
नकाब से ढका मुखड़ा
पतन की राह पर चलता
फक्कड़-सा जो दिखता
बदनीयत में पलता आदमी!
भकोस-भकोस यूँ खाता
मकड़जाल में फँसता जाता
यश अर्जन की चाहत में
रकीब अपना ही बनता आदमी!
लगाई-बुझाई में रस लेता
वश में न करता अहंकार
शापित-सा जीवन जीता
षडयंत्र का हिस्सा बनता आदमी !
सत्ता का लोलुप
हठ का पुतला अन्त में
क्षमा दान की करे पुकार फिर
त्राहि माम त्राहि माम उच्चारता आदमी !
ज्ञान की बानी पर कान धर इस
श्राप से क्यूं न मुक्त होता आदमी

- अंजू खरबंदा, दिल्ली


25 November 2024

जीवन का पाठ




बस, यूं ही...
रात घनघोर अंधेरा,
तिमिर ने कैसा जाल बिछाया...
उम्मीदें मेरी बिखरने लगी,
सांसे भी ज्यूँ उखड़ने को चली!
फिर...

नभ ने सुनहरे धूप का चादर,
लहराया जो हरीतिमा धरा पर...
मस्ती से झूम उठी धरती,
बहने लगी नदियां बलखाकर!

हवा का झोंका लेकर चली पुरवाई,
महकने लगी जीवन की फुलवारी!
पंछी चहके, गीत सुनाए...
आशा की किरणें संदेशा लाई!
और...

सबने जीवन का पाठ पढ़ाया,
पथिक तू कहीं रुक न जाना...
लक्ष्य तेरा है कबसे बांहे फैलाए,
निरंतर तुमको तो है चलते जाना!

- अनिता सिंह, देवघर, झारखंड

ख़ुशियाँ वही बसती हैं





न दिखाओ,
ज़रीदार कुर्ती के सपने 
जीने दो,
पैबंद लगे लिबास में।

जी रहे हैं ज़िंदगी वो,
हम जी रहे हैं 
ज़िंदा लाश में।
छुपने दो पैबंद, 
खुशी के लिबास में।

गम कुरेदने से 
गम कम नही होते।
गमों के सागर में भी,
ख़ुशियों के पल कम नही होते ।

एक रोटी को 
आधा बाँट कर खाना ,
बड़ों का पानी पीकर सो जाना।
गम मे जो मुस्कुरा सकते हैं,
वही , जो ज़िंदगी निभा सकते हैं।

छोटी सी झोपड़ी 
और टपकता हुआ छत।
असबाब बचाने की 
वो जद्दोज़हद।
पैर फैलाने को 
नही दो को जगह,
साथ रह जायें दस दस।

दिवाली मे तुम 
झिलमिल लड़ियाँ जलाओगे,
उनके दरवाजों पर मगर 
एक दीया जलता हुआ पाओगे।

नही है महलों की वीरानियाँ ,
लाशों की पहरेदारियाँ।
है पैबंद लिबास पर तो क्या,
कोई पैबंद नही जीवन पर यहाँ।


                                                                         - शिखा लाहिरी



खुद को सशक्त कीजिए




खुद को कोसना और रोना-धोना बंद कीजिए,
खुद को प्रति दिन सशक्त कीजिए।

चार दिवारी से बाहर निकलना शुरू कीजिए,
जिंदगी का भरपूर मजा लिजिए।

कभी खुद से भी बातें कीजिए,
कभी खुद अकेले भी रेस्टोरेंट जाया कीजिए।

जीवन से अपने दो टके लोगों को टाटा बाय बाय कीजिए,
जीवन के इस पड़ाव में, बस स्वयं को ही महत्व दीजिए।

लोगों की बातों को बेवजह ना दिल पर लीजिए, और ना ज्यादा सोचा कीजिए,
खुद को प्रति दिन बेहतर से उत्तम कीजिए।

कलम की ताकत सबसे बड़ी ताकत, लिखना शुरू कीजिए,
दुखड़ा रोने से कुछ नहीं हासिल होगा, खुद पर बस एतबार कीजिए।

प्रति दिन दिल खोल कर मुस्कुराया कीजिए,
कभी बैठिए फुर्सत से और रात को तारें भी निहारा कीजिए।

जो चला गया वक्त वो लौट कर नहीं आएगा,
जो है उस पर विचार कीजिए।

मूर्खो से ना ही भिड़ये और ना बहस कीजिए,
अपनी ऊर्जा को सही दिशा में खर्च कीजिए।

अपने बच्चों पर फोकस कीजिए, उन्हें हर हाल में सक्षम कीजिए,
अपने तनाव का उनकी जिंदगी में ना कोई असर कीजिए।

खुद को ही खुद का बेहतर दोस्त बनाइए,
कभी आईने में खुद से ही घंटो बातें कीजिए।


                                                                               - रजनी उपाध्याय 



हंसी और आंसुओं की अनकही कहानीः विदाई के पल

नया सूरज, नई ज़िंदगी, और एक नई शुरुआत। शादी के अगले दिन का माहौल ससुराल में हलचल भरा था। सुबह से ही घर में रस्मों की तैयारी चल रही थी। लड़की के मायके वाले – माता-पिता और रिश्तेदार – बेटी के ससुराल पहली बार आ रहे थे, एक रसम निभाने। हल्का-सा संकोच, हल्की-सी बेचैनी, और ढेर सारी उम्मीदें लेकर वे घर में दाखिल हुए।





ससुराल का दरवाजा खुला और हर तरफ मुस्कुराहटें बिखर गईं। सबने एक-दूसरे का गर्मजोशी से स्वागत किया। चाय, मिठाइयों और गपशप के बीच रसम पूरी हुई। हर कोई प्रसन्न दिख रहा था, लेकिन कहीं भीतर छिपी भावनाओं की गहराई को महसूस किया जा सकता था।  


जब विदाई का समय आया, तो मायके वाले गाड़ी में बैठने लगे। बाहर ससुराल के सभी सदस्य हंसी-खुशी उन्हें विदा कर रहे थे। हाथ हिलाकर, मुस्कुराते हुए। एक खुशनुमा तस्वीर जैसी लग रही थी।  लेकिन उन मुस्कानों के बीच, घर के दरवाजे पर एक कोने में खड़ी लड़की और गाड़ी में बैठी उसकी मां की आंखें भरी हुई थीं। मां बेटी को देख रही थी, बेटी मां को। कोई शब्द नहीं बोले गए, पर उनकी नज़रों ने सब कह दिया। मां की आंखों में बेटी को अलविदा कहने का दर्द था, और बेटी की आंखों में अपनी पुरानी दुनिया से दूर जाने की कसक।  


मैं वहीं खड़ा सब देख मुस्कुराहटें और बहते आंसुओं के बीच का सफर महसूस करने की कोशिश कर रहा था। क्या मैं मुस्कुराऊं उन खुशहाल चेहरों के साथ, उन आंखों से बहते आंसुओं में डूब जाऊं ?  


उस पल ने मुझे एक अनकही कहानी सिखा दी। इंसान की ज़िंदगी मुस्कान और आंसुओं का अजीब संगम है। जो विदाई हंसी के साथ हो रही थी, उसमें भी दर्द छिपा था। और जो आंखों से आंसू बह रहे थे, उसमें भी प्यार की गहराई थी।  


गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ी, और मां-बेटी की आंखों का वह संपर्क टूट गया। ससुराल वाले अब भी मुस्कुरा रहे थे, हाथ हिला रहे थे। लेकिन मैं जानता था, उस गाड़ी में बैठी मां और बेटी ने अपने दिल के एक कोने में वो पल हमेशा के लिए कैद कर लिया था। आखिरकार, मैं वहां खड़ा, न मुस्कुरा सका, न रो सका। क्योंकि इन आंसुओं और मुस्कान के बीच झूलती हुई ही यही ज़िंदगी है।


                                                                   - विकास बिश्नोई