कितनी सुन्दरता बिखरी पड़ी है
माँ तेरे आंचल में
पहाड़ों की हरीतिमा से लेकर
खेतों-खलिहानों,
नदियों की अंगड़ाई तक
अफसोस
क्यूं दिखाई नहीं देती
कुछ आंखों को
क्यूं सुनाई नहीं देता
तेरा शांति संदेश
लगता कुछ जन्मजात
बेहरे भी हैं अंधे भी हैं
इस दुनियां में
क्यूं विकृत करने पर
तुले रहते हैं कुछ हाथ
उन्हें क्यूं समझ नहीं आती
क्यूं नहीं सुहाती
तेरी ये मनमोहक छटा
सच तो ये है
सदियों से चली आ रही
वो मानसिकता
आज भी मौजूद है
चांद में धब्बों की तरह।
- व्यग्र पाण्डे
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