साहित्य चक्र

01 November 2024

कविता- रह गया




जिंदगी जीते जीते जीना ही रह गया। 
दूसरे की पंचायत करने में खुद को पहचानना रह गया।

सभी के बारे में जानकारी रखने में,
अपने बारे में जानना रह गया।

दूसरे के बारे में बुरा सोचते सोचते,
अपना अच्छा करना ही रह गया।

भले ज्ञान प्राप्त कर लिया तमाम,
पर समझदारी पाना रह गया।

दूर के संबंधों को संजोते संजोते,
निकट के संबंधों को संजोना रह गया।

चारों दिशाओं के पत्थरों को तो पूज लिया,
पर ईश्वर को पहचानना रह गया।

नदी के बहाव की तरह बह गई यह जिदगी,
और फिर एक बार जीना रह गया।

दूसरों के घर उजाला करते करते,
अपने घर में दिवाली का दीप जलाना रह गया।


                                                    - वीरेंद्र बहादुर सिंह 


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