मधुमालती
देख मधुमालती के पुष्प को,
मन में आये कई विचार।
सुंदर सुरभित सुमन का सौरभ,
लाया है उपवन में बहार।
झाड़ियों में पुष्पित बेलें,
गुल्म में भी पुहुप का व्यापार।
सीखा हर हाल में हँसना तुमसे,
जीवन को किया तुमने साकार।
चाँदनी आयी विभा लुटाने,
हर्षित हो तुमपर सुकुमार।
मधुप का मकरंद समेटे,
काँधों पर गुँचों का भार।
प्रत्येक ऋतु में होते पुष्पित
प्रकृति मानती है आभार।
कितनी प्यारी कितनी अनोखी,
मधुमालती की तुम हो डार।
- रीमा सिन्हा
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मुस्कान फीकी है
मुस्कान फीकी है
जहां सरेआम कत्ल होती है हँसी
वहां : नहीं होता
अपनेपन का हाथ
मौलिक अधिकार से ज्यादा
ज़रूरी है संवेदनाओं के टुकड़े
बहुत खतरनाक होता है
भीड़ में खोजना, एकाकीपन का साथी
मुस्कान फीकी है
शहर से, इमारतों में
भौहें तने लोगों के चेहरे
गहराते हुए अंधेरे
मुस्कान फीकी है
क्योंकि कोई यहां खुलकर
मुस्कुराता नहीं
खूंटी से टंग चुकी हैं सारी वेदनाएं
इसलिए अब कोई मुस्कुराएगा नहीं
बस : सपाट चेहरे पर
बिखेरगा बांसीपन
और खत्म हो जाएगा, रहा सहा जीवन..!
- अनुभूति
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भर लूँगी सारी बतियाँ
कभी कहूँ सुन ले रे मनवाँ,
कुछ मनमानी कर सखियाँ।
सब सखियाँ हैं बात बुझावत,
कर न सकीं मन की बतियाँ।
हँसी ठिठोली झूठी सच्ची,
खूब बनावैं सब बतियाँ।
पर जब हुईं अकेली माधो,
कोरी कोरी थीं अखियाँ।
कोरी रह गई राज दुलारी,
रंग नही पाईं सखियाँ।
मैं भी खड़ी रही योगन बन,
कोरा कागज दिन रतियाँ।
कोरा तन मन ही है सुन्दर,
कोरे कागज की बतियाँ।
जब भी श्याम हमारे संग हों,
भर लूँगी सारी बतियाँ।
- स्नेहलता द्विवेदी 'आर्या'
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एक स्त्री चाहती है
उसे मिले एक अच्छा जीवन
उसके सुकून के जल में कोई ना फेंके कंकर
जब वह काम से लौटे
कोई बना दे कम शक्कर वाली चाय
उसके देर से लौटने पर शक की जगह जताए चिंता
पहले से तैयार रख दे बाल्टी-भर
गुनगुना पानी और एक साफ तौलिया
एक स्त्री चाहती है
उसे मिले एक गर्म हथेली और प्रेमिल स्पर्श
पीठ पर सुकून की थपकी
तमाम आपा-धापी के बाद बचा रहे जीवन में नमक
एक स्त्री चाहती है
उसे मिले बराबर का हक़
उसकी योग्यता को उसकी सुंदरता से तोला न जाए
उसकी योग्यता को मिले पूरी इज्ज़त और सम्मान
एक स्त्री चाहती है
घर की जिम्मेदारियों को बांट लिया जाए आधा-आधा
उसके होने , नहीं होने पर
घर, घर बना रहे
एक स्त्री चाहती है
किसी मंच पर चढ़ते हुए नहीं काॅंपे उसके पाॅंव
उसकी साड़ी के पल्लू से ज्यादा ध्यान हो उसके कहे शब्दों पर
अपना वक्तव्य देते हुए ना हो उसे ट्रोल की चिंता
एक स्त्री चाहती है
तुम चाहो उसे इतना कि उसकी चाहत की उम्र दोगुनी हो जाए
प्रेम से पहले प्रेम के बाद भी तुम उससे उतना ही रखो नेह
एक स्त्री चाहती है
तुम रखो उसकी भावनाओं का पूरा ख्याल
उसे दो सांस लेने भर की जगह
एक स्त्री चाहती है
उसे स्त्री से ज़्यादा समझा जाए एक मनुष्य।
- ज्योति रीता
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अहसासों की नाजुक सी ये डोर ढीली हो रही है...
धीरे - धीरे अब जी की पीर ख़त्म हो रही है....
प्रेम रखने वाली अल्हड़ सोच अब परिपक्व हो रही है
कल तक भागते थे हम जिन जुगनुओं के पीछे- पीछे
धीरे - धीरे अब जी की पीर ख़त्म हो रही है....
धड़कना चाहा था हमने उनकी धड़कनों के साथ ही
मचलना चाहा था हमने उठते जज़्बात के साथ ही
उन धड़कनों, जज़्बातों की बात अब कम हो रही है
धीरे - धीरे अब जी की पीर ख़त्म हो रही है....
यूँ तो पहले भी दूरियां थी..... शहरों की मीलों लम्बी
पर बंधी नहीं थी कभी,,,,,, ये शब्द की सीमाएं ही
अब न चाहते हुए भी सीमाओं से नजदीकी हो रही है
धीरे - धीरे अब जी की पीर ख़त्म हो रही है....
समझा लिया हृदय को अपने,,,,मन को....मसोस कर
लगा लिया पहरा हमने अपने हिय में उफनती सोच पर
इसलिए ही अब पीर...!! शायद कुछ कम ही हो रही है
धीरे - धीरे अब जी की पीर ख़त्म हो रही है....
अब नहीं चाहते हैं हम..! कि,, तुम फिर से लौट आओ
नहीं चाहते कि,,,,, मदहोश करने वाले सपने दिखाओ
माना कि,अभी भुलाने में तुम्हें, हमें तकलीफ हो रही है
पर धीरे-धीरे ही सही अब जी की पीर ख़त्म हो रही है...
- शीतल शैलेन्द्र देवयानी
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