साहित्य चक्र

17 November 2024

कविता- सपनों का घर




शब्दों से परेह है 
मेरे सपनों का घर
अपना नहीं है
मेरे अपनों का घर।

ढ़लती जा रही है जिंदगी 
मलाल में
न मायके में रहा मेरा घर
न ससुराल में

२५ सालों तक जिस घर को 
सजाया संवारा
किताबों कि आलमारीयों
को अपना बनाया

 किचन के डब्बों को
को मसालों से सजाया
जैसा छोड़ कर आयी 
थी आंगन 
गयी . .तो वैसा न पाया

अब यहाँ फिर लगेंगें २५ साल 
सपने गूंथनें में 
कुछ पुरे करने में 
कुछ टुटनें में

किंतु कोई आसार नहीं 
कि ये घर भी अपना हो पायेगा
बच्चे बड़े होंगे आज कि पीढ़ी के जब
फिर एक नया घर थमाया जायेगा

मुझसे बार बार गैरों
को यूं अपना न बनाया 
जायेगा 
लगता है मेरे सपनों का घर
सपनों में ही रह जायेगा

                              - कंचन तिवारी "कशिश"

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