साहित्य चक्र

11 November 2024

डॉ. कविता विकास की पाँच रचनाएँ





पहली रचना

वो नज़र में शिकार रखते हैं
बस ज़ुबाँ पर ही प्यार रखते हैं

ख़ूबसूरत विचार रखते हैं
हम तो मन में बहार रखते हैं

ख़ाहिशें जो हज़ार रखते हैं
ग़म भी वो बेशुमार रखते हैं

ज़िंदगी है पनाह में जिसकी
उसको ही राज़दार रखते हैं

साफ़ - सुथरे लिबास हैं उनके
मन में लेकिन विकार रखते हैं

काम करते हैं देश हित मे वही
जो विचारों में धार रखते हैं

पल रहे हैं जो बीच काँटों के
फूल - सा वे निखार रखते हैं

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दूसरी रचना

ख़ामोशियों के शोर में दिन इंतज़ार के
दम ये निकाल देंगे किसी दिलफ़िगार के

पहुँचा बुलंदियों पे वही आदमी यहाँ
जिसने कि ग़म मनाए नहीं अपनी हार के

इतिहास में हैं दर्ज उन्हीं के तो नाम बस
बहते रहे हैं जो सदा विपरीत धार के

हों कोशिशों के साथ तलब और इल्म भी
अवसर भी बेशुमार हैं तब रोज़गार के

कहते नहीं ख़िलाफ़ कभी कुछ लबों से हम
रख देते हैं निगाह से उनको उतार के

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तीसरी रचना

अब तो हालात हमारे भी सुधारे जाएँ
मुफ़लिसी से कभी हम भी तो उबारे जाएँ

दिलनवाज़ी का कभी हमको सिला भी तो मिले
शोख नजरों से न हम सिर्फ निहारे जाएँ

नाख़ुदा हाथ तुम्हारे है सफ़ीना अपना
ये करम करना कि हम पार उतारे जाएँ

मुंतज़िर ही रहे तन्हाई में इक-दूजे के
मन ये करता है कि अब पास तुम्हारे जाएँ

जंग हो या कि सियासत, यही बस ध्यान रहे
जो भी निर्दोष रहे हैं वो न मारे जाएँ

फूल से लद गए जो पेड़ किनारे वाले
उनकी चाहत है कि पुरचश्म निहारे जाएँ

चैन आए भी तो आए भला कैसे 'कविता'
जब तलक चैन के रस्ते न सँवारे जाएँ

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चौथी रचना

यह तरक्की इक अज़ूबा है जहाँ अवसर नहीं
जल नहीं, बिजली नहीं, रहने को लोगो घर नहीं

मेरी ख़ातिर वक्त जिसके पास है पलभर नहीं
जान ले वह भी कि मैं उसके लिए मुज़्तर नहीं

बिन दुखों के कब मुक़म्मल हो सकी है ज़िंदगी
चक्र मौसम का अधूरा है अगर पतझर नहीं

पास की श्रेणी में ख़ुद को हम नहीं रख पाएँगे
सोच के अनुरूप कर पाए अगर बेहतर नहीं

इल्म, ग़ैरत और मेहनत की लगी हैं मोतियाँ
ज़िंदगी से कीमती 'कविता' कोई जेवर नहीं

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पांचवीं रचना

यूँ तो आया न वो बुलाने से
पर भुलाया कहाँ भुलाने से!

बनती है ज़िन्दगी बनाने से
कुछ सबक लीजिए ज़माने से

चैन दिल को नहीं किसी सूरत
उसके आने से उसके जाने से

रह गए हम लिहाज में बँधकर
चुक गए हाले दिल बताने से

कुछ नजाकत भी वक्त की समझो
बाज आओ इसे गँवाने से

अब करोगे भी क्या यहाँ आकर
जब नहीं आए तुम बुलाने से

इक मुलाक़ात की तमन्ना है
आ भी जाओ किसी बहाने से


                                                                      - डॉ. कविता विकास

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