साहित्य चक्र

28 November 2024

कविता- प्रेम



अक्सर सोचती!
जिन आँखों में तुम्हारे लिए सिर्फ प्रेम भरा हो
कैसे भर सकते हो तुम उनमें पानी
कैसे नहीं देख पाते
छोटी सी बात पर चिड़िया की तरह फुदकने वाली लड़की
विलख भी सकती है छोटी सी ही बात पर
तुम्हारा होना
बस होना भर तो नहीं हो सकता उसके लिए
जो खिल - खिल उठती है तुम्हारे मुस्कराने भर से
माँगा क्या तुमसे?
प्रेम! प्रेम! बस प्रेम!
हाँ! प्रेम! बस प्रेम!
तुम नहीं समझते प्रेम ना होने के दुःख से
बड़ा दुख है प्रेम होने का भ्रम होना
कैसे नहीं समझते? जहाँ प्रेम है
वहाँ नहीं होता किसी और चीज का स्थान
किसी और भाव का भी नहीं
सच कहूं तो हर साथी को कुछ भी होने से पहले
होना चाहिए बस प्रेमी
सुना! बस प्रेमी!
प्रेम में खूबसूरत लगती है ये दुनिया
प्रेम में स्वयं से विलग नहीं लगता साथी
प्रेम में प्रेममयी लगती है वो भी कविता
जिसमें विलुप्त हो प्रेम शब्द।


- सृजिता



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