साहित्य चक्र

25 November 2024

शहर और गांव




जब भी प्रवेश करती हूँ मैं
आर्य पुत्र के गाँव में
मन को गाँव के गोरमे पर
छोड़कर जाती हूंँ।

समझा देती हूँ उसे उलाहनों से
टूटकर तुम बिखर जाओगे
यहीं रूके रहो यहीं
मेरी प्रतीक्षा करो !
जब तक मैं‌ न लौटू

समझदार हो गया है मन भी अब
ठहर जाता है वहीं
सड़क किनारे वाले
कुएँ की मुंडेर पर
नीम की छांव में
अशीशा लगाता है
जऴकन पट्टी का
खूब खर्राटे से नींद लेता है।

जब लौट कर आती हूँ मैं
खुशी-खुशी बिठा लेती हूँ
उसको अपने साथ गाड़ी में
और फिर मैं और मन दोनों
खिलखिलाते हुए दौड़ पड़ते हैं सरपट
शहर की ओर...।

- डॉ. निर्मला शर्मा



No comments:

Post a Comment