साहित्य चक्र

01 November 2024

कविता- दर्पण



दर्पण मुझे मेरी सूरत का हिसाब मांगे, 
आज तक की यह हर गुनाह का हिसाब मांगे।

दर्पण याद दिलाता है गुज़रे दिनों की, 
हर गुजर दिन अपना हिसाब मांगे।

दर्पण याद दिलाता है मेरे प्यार की, 
मेरा प्यार अपना हिसाब मांगे।

दर्पण याद दिलाता है अपने मात पिता की,
 मात-पिता अपने होने का हिसाब मांगे।

 दर्पण याद दिलाता है कॉलेज के अतीत दिनों की,
 कॉलेज के अतीत दिन अपना हिसाब मांगे।

दर्पण याद दिलाता है अपने जीने की, 
जीना मुझे हर दिन का हिसाब मांगे।

दर्पण मुझे मेरी सूरत का हिसाब मांगे, 
आज तक किया हर गुनाह का हिसाब मांगे।


                                           - गरिमा लखनवी

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