अदना-सा है आदमी
आइना दिखाती रोज ही जिन्दगी
इतिहास को बदलने की बातें करता
ईमान पर भी कायम न रह पाता आदमी !
उम्र-भर करता गिले-शिकवे
ऊल-जलूल करता हरकतें
ऋषि बनने का रचता ढोंग
एकाधिपत्य के पीछे दौड़ता आदमी!
ऐंठ इसमें गजब की पर
ओहदे को सलाम करता
औसतन रोज ही मरता ऐसे
अंत को भी भूल जाता आदमी!
ककहरा बिन सीखे ही
खखोरता अपना भविष्य
गणित बिन समझे ही
घटा-जमा में रोज उलझता आदमी!
चकाचौंध में हुआ मस्त
छकाने की पड़ गई लत
जमीर भी अपना बेच आया
झाड़ पर खुद को चढ़ाता आदमी!
टकराव में बिता दी जिन्दगी
ठहराव न पाया कहीं
डगर पकड़ी आड़ी-तिरछी
ढपली खुद ही बजाता आदमी!
तख्तोताज की रखता ख्वाहिश
थापी देता खुद को ही
दलदल में धंसता जाता
धर्म को भी न बख्शता आदमी !
नकाब से ढका मुखड़ा
पतन की राह पर चलता
फक्कड़-सा जो दिखता
बदनीयत में पलता आदमी!
भकोस-भकोस यूँ खाता
मकड़जाल में फँसता जाता
यश अर्जन की चाहत में
रकीब अपना ही बनता आदमी!
लगाई-बुझाई में रस लेता
वश में न करता अहंकार
शापित-सा जीवन जीता
षडयंत्र का हिस्सा बनता आदमी !
सत्ता का लोलुप
हठ का पुतला अन्त में
क्षमा दान की करे पुकार फिर
त्राहि माम त्राहि माम उच्चारता आदमी !
ज्ञान की बानी पर कान धर इस
श्राप से क्यूं न मुक्त होता आदमी
- अंजू खरबंदा, दिल्ली
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