चेहरे पर मेरे अपनी जुल्फ़ों
को गिराया उसने,
आतिशे शोक़ को मेरी
और बढ़ाया उसने।
ताल्लुक़ तो कुछ भी गहरा
नहीं था उससे।
नाम मेरा लिख - लिख के
कई बार मिटाया उसने।
रात की तन्हाई में जो नींद
खुल गई मेरी।
माँज़ी के लम्हों ने फ़िर खूब
सताया मुझको।
वफ़ा पर उसकी बहुत
ऐतबार था मुझको।
आकर क़रीब मंज़िल के
हाथ छुड़ाया उसने।
अंदाज़ भी उसका गज़ब
कर गया 'मुश्ताक़',
शरमाकर अपने चेहरे को
मुझसे छुपाया उसने।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह" सहज़"
No comments:
Post a Comment