साहित्य चक्र

18 November 2024

कविता- डाकिया



वो खाकी वर्दी सिर पर टोपी। 
साथ में साईकिल भी होती।
 
कंधे पर चिट्ठियों से भरा थैला होता। 
डाकिया आया डाक लाया जोर से ये आवाज लगाता।

हर समय रहता चिट्ठी का इंतजार। 
कभी नहीं होने देता था बेकरार।

जब भी कभी गांव या गली में आता। 
मन में चिट्ठी आने की आस भी जरूर था जगाता।

डाकिया आता और चिट्ठी न लाता। 
तो मन उदास सा था हो जाता।

अब न ही चिट्ठी आती। 
न ही डाकिये की आवाज गाँव व गली में जाती।

नई पीढ़ी चिट्ठी से है अनजान। 
ये नहीं जानते इसमें डाकिये का रहा है कितना योगदान।

चिट्ठी न आए तो डाकिया भी नहीं आता। 
पर कभी कभी पार्सल और मनीआर्डर जरूर है लाता। 

                                     - विनोद वर्मा



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