साहित्य चक्र

17 November 2024

कविता- अनकही दास्तान





ढूंढ रही थी पन्नों पर 
बिखरे लफ्ज़ और अल्फाज़ो मे
छुपी हुई जज़्बातों में 
अनगढ़ सी  मेरी कविता।

कुछ शब्द हैं धुंधले से 
कुछ छंद-ताल हैं टूटे से 
कुछ यादें हैं सिमटी सिमटी 
समय के चादर मे लिपटी।

मुह ढक कर धूप जब सोता है
कोहरा रातो में रोता है 
सूरज की पहली किरण पड़ी 
जब कलियों पर 
अश्क की बूंद बन 
फूलों के कपोल पर ढलकता है।

यादों के मेघ उमड़ घुमड़ 
जब छा जायें,
काली रातों में बिजली बन 
चमक चमक खौफ़़ जगायें 
सिरहाने मे चेहरा छुपा  कर 
सारी रात भिगोता है।

क्यों गुज़र गुज़र जाता है वक्त
लौट कर कभी न आता है वक्त 
फिर गुज़रे उन लम्हों को
क्यों बारबार पटल पर लाता है।

जो बीत गया वो बीत गया 
कोरे पन्नों सा रीत गया 
क्यों अश्को मे घुलती यादों को 
समय की रेत पर फैला कर
उढ़ेल बार बार कोई जाता है।

कुछ धुंधले शब्दों को सहेज 
टूटे छंद-ताल को जोड़ जोड़ 
अनकही कुछ दास्तान 
न कागज़, कलम, न दवात 
ये मन सपनों का कैनवास 
बार बार चित्रित कर जाता है।

                                - शिखा लाहिरी


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