साहित्य चक्र

27 November 2024

तुम बनो सौभाग्य मेरा


आतुरता तुम्हे मुझसे मिलने पर विवश कर देती थी।अक्सर दूर गगन में जब चिड़ियों के घर लौटने का समय होता ,जब रवि अपनी रश्मियों को अपनी बाहों में समेटे अश्व रथ पर सवार होकर अपने लोक के लिए प्रस्थान करते ,जब शशि हौले से बादलों की ओट से अटखेलियां करता तब उस काल में तुमसे भेंट होने की संभावनाएं बढ़ जाती।तुम्हे आमंत्रित कर आग्रह पूर्व बुलाना मानो जैसे तुम खुशियां साथ लाने वाले हो,मानो तुम्हारा आना किसी उत्सव के हो जाने जैसा हो।फिर प्रेम आसक्ति में डूबे दो हृदय इस लोक को भूलकर आलौकिक लोक में विचरण करने सरीखे भाव लिए खोए जा चुके हो।





लोग कहते है क्या मिला मुझे तुमसे प्रेम करके।उनकी नजरों में बौराई सी पगलाई सी मै क्या ही उत्तर देती और क्यों ही देती। मैं तो इतना ही जानती हूं प्रेम करके कुछ बचा ही नहीं पाने को,तुम खुद भी नहीं।तुम्हे चाहना था चाह लिया। तुम चाहिए ऐसा कभी नहीं चाहा।मैं नदी के समान बहती रही और अंत में तुम्ही में समा गई।अब मेरी धारा को मै पीछे कैसे मोड़ सकती हूं।

एक दिन जब मेरा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा ।जब मैं इस लोक से उस लोक की यात्रा का आरम्भ करूंगी तब तुम्हारा प्रेम मेरे साथ रहेगा।तुम्हारा प्रेम ही मेरा सौभाग्य है। मैं सौभाग्यवती जाना चाहती हूं।इतना अधिकार तुमसे नहीं मांग रही हूं अपितु तुम्हे मेरे जीवन में सौभाग्य रूप में भेजने वाले ईश्वर से मांग रही हूं।

सुनो माना कि अंतिम समय में मेरी मांग सूनी रह जाएगी।लेकिन तुम आना, जरूर आना ।घर के मंदिर से रोली लेकर और कहना ये ईश्वर का प्रसाद है और इस स्त्री का सौभाग्य कि अंत समय में इसके माथे पर सज कर इसका सौभाग्य बढ़ाएगा। तो लगा दीजिए इसके सूने माथे पर सौभाग्य का टीका। और मैं मान लूंगी कि मेरा सौभाग्य तुम हो।

- पारुल अग्रवाल मित्तल

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