बैठी हूँ निर्भीक सामने
उत्खनन की मुद्रा में,
मैं! लिए संवाद की कुदाल
कुरेद देना चाहती हूँ
कई सख्त मनो की परतें....
अंकुरण लेना चाह रही हैं
अब अमूर्त अभिलाषाये
और अदृश्य भावनायें,
स्नेहिल पवित्र रूह से....
ऊसर से कुम्हला चुकी
शून्य को निहारती हुई
जो ये मानवीय संवेदनायें हैं,
नितांत अकेली व असहाय
अब! तर हो जाना चाहती हैं....
सुसुप्त पडी अपेक्षाएं व खुशीयो को
पा लेना चाहती हैं सदा के लिए!
ये !अंतरंग मन की रेखाएं,
अब संवादों के वेग से ही।
- दया भट्ट
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