साहित्य चक्र

29 December 2019

ठुमरी की रौनक




ह्रदय की मधुर अनुभूतियों को भावनाओं से सराबोर करके दीपचंदी की दलखाती लय में जो गीत गाए जाते हैं, उन्हें हम ठुमरी कहते हैं। 19वीं शताब्दी में ठुमरी गायक-गायिकाओं को समाज में सम्मान नहीं मिलता था।  वे लोग निम्नकोटि के कहे जाते थे।  धीरे-धीरे समय बदला और अच्छे-अच्छे गायक भी ठुमरी शैली को अपनाने लगे। उत्तर प्रदेश के लखनऊ और बनारस के कुशल गायकों ने ही इस गायकी का प्रचार किया।  इसमें प्रेयसी की व्याकुलता या विरह वेदना का वर्णनं ही अधिक पाया जाता है। पुराने गायक गाते समय चेहरे के हाव-भाव का स्थान स्वरों की मंजुल मुरकियों ने ले लिया है। ठुमरियाँ मिश्र रागों में गाई जाती हैं व मधुर लगती हैं।  लोक और शास्त्रीय संगीत के कई प्रकार के मिश्रण करके इसे उपशास्त्रीय संगीत के वर्ग में रखा जाता है।  वाजिद अली शाह ने एक ठुमरी रची थी ,जो श्रोताओं के मन को बहुत प्रिय थी , जिसमें नवाब के अपने राज्य से बिछड़ने का दर्द छिपा था -

"बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय ,
चार कहार मिल, मोरी डोलिया उठाए,
मोरे अपना बेगाना छूटो ही जाय ,
अंगना तो परबत भाए ,देहली भई बिदेस ,
जे बाबुल घर आपनो , मैं चली पिया के देस। "


अर्थात -हे पिता, मैं अनिच्छा से अपने घर से जा रही हूँ। चार आदमी मेरी पालकी उठाने के लिए एकत्र हो गए हैं तथा अब मेरे प्रियजन अजनबी हो जाएँगे।  जैसे ही , मैं अपने पिता का घर छोड़कर अपने पति के देश जाऊँगी ,मेरे घर का प्रवेश मार्ग ही मेरे लिए दुर्गम हो जाएगा।

ठुमरी के मुख्यतः तीन अंग हैं - पूर्वी ,पहाड़ी और पंजाबी। पूर्वी अंग की ठुमरी में बोलबनाव का काम प्रमुख होता है।  विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति एक ही शब्द के माध्यम से अनेक बिदरियों के आधार पर की जाती है।  पूर्वी शैली उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग ,ब्रज ,बिहार ,मध्य प्रदेश ,गुजरात ,राजस्थान तथा महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में प्रचलित है। पहाड़ी शैली लखनऊ ,मुरादाबाद,सहारनपुर,मेरठ और दिल्ली में प्रचलित रही है। इसमें कोमलता और लोच काम दिखाई देती है। पंजाबी अंग अपेक्षाकृत नई है। इसका सम्बन्ध पंजाब के बरकत अली खान ,बड़े ग़ुलाम अली तथा नज़ाकत-सलामत अली से माना जाता है। पंजाबी अंग की ठुमरी में बोलबनाव के साथ-साथ छोटी-छोटी तानों ,बोल-तानों ,खटके ,मुरकी तथा जमजमा आदि का प्रयोग भी प्रचुरता एवं कुशलता के साथ किया जाता है।

वर्तमान समय में ठुमरी इतनी प्रचलित हो गई है कि ख्याल की गंभीर आलापचारी और बोलतान आदि को छोड़कर या कम करके उसमें भी ठुमरी के ढंग का द्रुत और मध्य ले का काम किया जाने लगा है। परिणामस्वरूप ख्याल और ठुमरी दोनों का रूप अपने शुद्ध अवस्था को बनाए रखने में समर्थ सा प्रतीत होने लगा है।

सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी

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