साहित्य चक्र

07 December 2019

आंखें कुछ बहशी बेशर्मी की

डरी,सहमी,सकुचायी सी वो 
सड़क किनारे जा ठहरी थी।
आंखें कुछ बहशी बेशर्मी की, 
उसको आ पीछे से घेरी थी।।

कभी आंचल संभालती कभी बाल समेटे,
वो कदम आगे बढ़ा रही थी।

आहट पीछे की परछाई लोगों की, 
उसको हर पल डरा रही थी।।

तेज कदम से बढ़ रही थी,
वह अपने घर तक जाने को।
ठहरो!..रुको!
कहां चली तुम-सहसा कहा किसी ने धमकाने को।।

आंखों में आंसू बिखर गए थे,
कदम कुछ पीछे खिसक गए थे।

वह अकेली थी और वो चार थे,
वो जिद पर अपने ठिठक गए थे।।

कर निर्वस्त्र अपमान किया,
और चारों ने उसका दुराचार किया।
वो चीखती, चिल्लाई,गिड़गिड़ाई,
तो उस पर और अत्याचार किया।।

हवस मिटाली उन लोगों ने अपनी, 
उसकी इज्जत को तार-तार किया।
घोर अंधेरी रात में उस अबला की, 
बर्वशता का जीर्णोद्धार किया।।

पता चला जब लोगों को,
तो तानों बानो का ताता लगा दिया।
अधमरी तो थी ही वो,
अब बातों का भी मानो चांटा लगा दिया।।

कुछ नहीं हुआ उन दरिंदों का,
बस उस लड़की को ही बदनाम किया।
देख लो कृष्ण आज फिर से,
एक द्रोपदी को नीलाम किया।।

......आज फिर एक द्रोपदी को नीलाम किया..


                                ~आंशिकी त्रिपाठी"अंशी"


No comments:

Post a Comment