साहित्य चक्र

21 December 2019

मन- फकीर का कासा



मेरी आकाशगंगा में
केवल एक नक्षत्र प्रदीप्त था,
असंख्य तारागणों की रोशनी लिए हुए।
पर, धीरे धीरे वो रोशनी
मद्धिम पड़ने लगी तो 
रतजगों में डूबी मैं
अपने हताश और तमसावृत कक्ष से
उड़ा रही हूं
दुआओं के परिंदे


परिंदे फड़फड़ा रहे हैं अब
सुदूर बगदाद की
गौस-ए-पाक नीली दरगाह पर
शायद, सूफियों के दर पर
दुआएं ऐसे ही
पंख झटकारती हैं।


दरगाह के बाहर
अनहद बाजा लिए
एक फकीर बैठा है
दुआओं के परिंदे देख
वो अपना खाली कासा देख
मंद मंद मुस्कुराता है
लोबान की सुगंध
वायु में घुल जाती है और
परिंदे स्वतः अदृश्य हो जाते हैं


सूफी उठ खड़ा हुआ
और वर्तुल नृत्य कर रहा है
बाएं हाथ से ब्रह्मांड और दाएं से
पृथ्वी घुमा रहा है
अब, असंख्य आकाशगंगाएं 
दिखने लगीं, और मैं
एक नक्षत्र के लिए उद्वेलित थी


अनबूझे जज़्बात लिए
खड़ी हूं अपनी समग्रता लिए
मानो चित्त ने विस्तार लिया
मन सूफी का खाली कासा हुआ
अज्ञानतिमिर का निदान हुआ


                                                  अनुजीत इकबाल

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