"निकला आज ढूढ़ने खुद को,
दिखे राह में कुछ चौराहे..
जो मुझकों थे पास बुलाते,
फैलाए धोखे की बाहें..!
उन गड्ढों के खाई बनने में
कुछ हाथ रहा अपनों का..
जिसे पाटने में खुद ही मैं
कब्रिस्तान बना सपनों का..!
जिनके दम पर भरी उड़ाने..
जिनके होने से पर' आए..
आज वही मेरे दुश्मन हैं,
जो मेरे थे कल तक साये..!!
थे दुनिया में भी कुछ ऐसे,
जो छल भाषा पढ़े हुए थे..
ऊपर से जितने मीठे थे,
भीतर उतने सड़े हुए थे..
कमजोरी को मजबूरी कह,
निकल गए नाजुक हालत में,
फैलाए थे हाथ उन्होंने,
जो दौलत से मढ़े हुए थे..!
इनको नाकामी बतलाकर,
खुद को सदा तसल्ली दी है,
पर ये ज़ख्म बहुत दुखते हैं,
कैसे कोई काबू पाये..
आज वही मेरे............!!१!!
और उन्ही में थी इक दुनिया,
जिसको दुनिया कह सकते थे..
मेरी गलती और सही पर,
साथ मेरे जो रह सकते थे..
सच्चे अर्थों में वह घर ही,
घर था बेमतलब दुनिया में,
जिसमें इन आँखों का आँसू,
उन आँखों से बह सकते थे..!
तो फिर ऐसी बेतरकीबी,
हमें कहा राहत पहुँचाती,
आखिर इस बेजान सफर को,
दिल किसको कबतक समझाए..!!
जिनके दम पर भरी............!!२!!
✍️ आशुतोष तिवारी 'आशू'
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