साहित्य चक्र

01 December 2019

कशमकश जिंदगी...!



दो बेटी के पिता थे राम प्रसाद जी । गाँव का माहौल था। खेती संभालने के लिए कोई बेटा होता! ऐसा ही सबको लगता। बेटी पराया धन ही होती थी तब  गाँव वाले महत्व नही देते थे।बेटा वंश के लिए ,वारिस सबको जरूरी लगता था।

बडा परिवार सब भाई साथ ही रहते, बस आँगन एक ही था रसोई कमरे अलग । जमीन जायदाद काफी थी सबके पास ।रामप्रसाद के पासक्षगाँव वाले या उसके भाई आते तो सब   बेटे ना होने का अहसास सब करा जाते थे। चाहे रामप्रसाद और गायत्री जी को ज्यादा ना महसूस होता हो। कभी कभी कुछ तीज त्योहारों पर लगता, तो गायत्री कहती जी  हमारी बेटियो की शादी हो गयी और गाँव मे अकेलापन भी नही लगता पर बेटा होता तो घर मे एक सुकून रहता, कही ना कही वैसे तो सब जेठ ,देवर के बच्चे अपने ही है और प्यार भी करते है।हाँ गायत्री दामाद तो बेटा नही हो सकता जो साथ रहे।कशमकश मन मे ना चाहते हुए भी चलता रहता ।गायत्री ने आवाज लगाई।

अजी सुनो! पडोस के देवर सूरज जी का बेटा  सुबोध आज बहुत सुना गया उन्हे...उन्होने बस पैसो का हिसाब माँगा था  कालेज  खर्च के लिए माँग रहा था। अच्छा ! समझाऊगाँ मेरी इज्जत करता है ,मान लेगा ।हाँ जी, सूरज  देवर जी कह रहे थे आप बात करना। बस रामप्रसाद समझाने गये  और सुबोध मान भी गया। पर कभी कोई ना मानता, माता पिता की बेइज्जती करता ,तो लगता ऐसा बेटा होने से तो अच्छा है नही दिया हमे।कभी बात मान लेता तो रामप्रसाद जी को शान्ति  मिलती, की बेटा नही तो क्या हुआ ? ये सब अपना ही है।अपने सगे भाई तो नही पूछते थे वो तो बस ये सोचते की दोनो के बाद जमीन जायदाद किसे देगें रामप्रसाद ।पर सूरज पडोस मे रहकर भी अपना लगता।

ऐसे ही  कशमकश मे जिंदगी निकल रही थी । दामाद, बेटी भी आते जाते रहते।एक दामाद तो सुख दुख का ध्यान रखता पर दूसरे को कोई ज्यादा मतलब नही था ।बेटियाँ बहुत प्यार से आती, मिलती पर ज्यादा रह नही पाती दोनो की घरो की जिम्मेदारी ज्यादा थी पर रामप्रसाद  और गायत्री उसी मे खुशी ढूढँते दोनो। दोनो समझते थे बेटियां आना चाहे भी तो जल्दी नही आ सकती।

गाँव का कोई आता या उनके सगे भाई सब   कहते की" बेटा नही है इस बात का दुख है। "कभी जायदाद किसको दोगे या आप दोनों का बेटा  नहीं है ,अब अंत समय जब आ रहा है तो आप पुण्य कमा लो यह जो अपनी गाय है इस को दान कर दो ।गाय का दान कर के ऊपर जाओगे तो मोक्ष मिलेगा सभी लोग रामप्रसाद को कुछ ना कुछ जाते औलाद जो नहीं थी । दोनों रामप्रसाद  और गायत्री साथ थे हमेशा ,उन्हें अपने बच्चे की कमी लगती  भी थी । आंखों में दो बूंद आंसू भी आ जाते पर कशमकश जिंदगी में चलती ही रहती है सोच कर जिंदगी चल रही थी।

                         

पडोसी सूरज ने एक बेटे की तरह फर्ज अदा किया जब भी उन्हें दुख सुख हो ,उससे पहले वह हाजिर हो जाता ।सबको पता था उसको कोई लालच नहीं है बस वह बड़ों का मान सम्मान करना जानता था सूरज की सुबह उनके हाल चाल पूछ कर निकलता ।


और शाम को चाय पी कर फिर एक चक्कर लगा देता और राम राम भैय्या, सब सही है। यह बात सुनकर एक मुस्कुराहट दोनों के चेहरे पर आ जाती ।गायत्री  भी खाने  को कुछ ना कुछ बनाती तो भिजवा देती । अब उम्र हो चली आई थी तो लोग राय, मशवरा देने वाले भी बहुत थे।  पर ध्यान रखने वाला कोई नही ।रामप्रसाद और गायत्री शांत स्वभाव थे तो हां करके चुप ही रह जाते पर मन मन में सोचते कि दुनिया को सहायता  तो करनी नहीं है पर राय मशवरा देने के लिए उनके पास बहुत समय है।


एक दिन भाई और आसपास के साथी  आँगन मे बैठे शाम की चाय पी रहे थे । रामप्रसाद जी धीरे धीरे चल कर अपनी गाय का दूध निकाल कर आए और आस पास के लोग बैठे  कहने लगे रामप्रसाद काका अब आखिरी जो समय है । किसी  को गोद लेकर ही गुजार दो ,वह देखभाल कर लेगा। और जमीन जायदाद और गाय यह सब उसको मिल जाएगी।कहाँ इस उम्र मे काम करते हो? रामप्रसाद राय मशवरा सुनते सुनते थक गए थे। आर पास बैठे और बोले आप लोग रोज ना जाने कितने सालो से मेरी ही बात करते आये है। आज मै अपनी कशमकश को दूर करता हूँ ।बुढा हो गया हूँ जानता हूँ। पर आप  क्या कभी दुख मे आये काम करने मेरे ? मेरे सगे भाई या आप सब मेरी चिंता करते है मुझसे ज्यादा की मेरे  बेटा नही। मुझे इतना दुख नही की बेटा होता ,जायदाद का क्या होगा?गाय किसको दूँगा । जितना आप सबको । थक गया आज सुनते सुनते। आज के बाद इस बात की चर्चा नही करना की मेरा क्या होगा ?

मुझे किसी गोद लेने की जरूरत नहीं है । पूरी जिंदगी मैंने और गायत्री ने एक दूसरे का साथ  निभाया है। जब मैं जाऊंगा तो यह मैं लिख कर जाऊंगा कि मेरे और गायत्री बाद सूरज के परिवार को ही मेरा सारा कुछ मिले । गोद लेने की जरुरत नही, मन से अपना हो वही मेरा ।सूरज ने मेरी सारी जिंदगी सेवा की बड़ा समझकर  की। और सब ने बस दिखावा किया । बेटी दामाद को भी दूँगा ,पर उससे ज्यादा सूरज को दूँगा मेरे सुख दुख का सहारा और वो भी बिना स्वार्थ  से और मेरा मन में बिल्कुल नहीं है  गाय दान करना पंडितों को। इतना जरूरी मुझे नहीं लगता ।इस गाय से सूरज का परिवार का पेट भरेगा। वही मेरे लिए दान है और यह कहकर रामप्रसाद उठ कर अपने कमरे में आ गए आज सब के मुंह पर ताला पड़ गया था एक जवाब रामप्रसाद को देना यह जरूरी ही हो गया था। अब आगे किसी की बोलने की कभी हिम्मत नहीं हुई । रामप्रसाद कहकर कशमकश से बाहर आ गये और गायत्री मुस्कुरा दी फैसले पर।



                                                                    अंशु शर्मा©️®️


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