साहित्य चक्र

16 February 2022

कविताः मैं अब पत्थर हो गया हूं





उत्सवों को में अब नकार कर 
अलगाववादी हो गया हू
मन मे कोई दीप नही जलता
कोई रंग असर नही करता
मैंने बहुत प्रयास किया
बहुत गहरे तक मे 
अपने अंदर तक लौटा
मगर कोई उमंग
कोई उत्साह मुझे 
स्वयं में नहीं दिखा।

अब मेरे पैर किसी संगीत पे
थिरकते नही है
सारी खुशियो को छोड़
में अब खाना बदोश हो गया हूं
अब सारा उत्साह , उमंग
मेरे मन मे बंजर हो गये है
इन आँखों से सारे मंज़र
अब भूले नही जाते
सारी त्रासदियों को देख
 में अब पत्थर हो गया हूं।


                             लेखकः कमल राठौर साहिल



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