मध्य युग के महान, विलक्षण एवं प्रतिभा के धनी संत रविदास ने समाज को बड़ी बारीकी से देखा समझा था। जब उनका चौदहवीं सदी में जन्म हुआ तब समाज कुप्रथा में ग्रसित था। नारी की दशा बहुत ही दयनीय एवं सोचनीय थी। रविदास का चिंतन भारतीय संस्कृति में बेजोड़ था।
रविदास संत और भक्त थे।उन्होंने जीवन में साधना को अपना अंग बनाते हुए कर्म योग,ज्ञान तथा भक्ति का समन्वय करते हुए एक नई साधना पद्धति को जन्म दिया था। संत रविदास ने सहज साधना, सहज धर्म के माध्यम से जनसाधारण को स्वतंत्र चिंतन और सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना का सूत्रपात किया।
उन्होंने भारत में फैले अंधविश्वास , बाह्याडम्बर, कुरीतियों का घोर विरोध किया एवं क्रांतिकारी कदम उठाया और जाति संप्रदाय की संकीर्ण विचारधारा को ऊपर उठकर विश्व मानव एवं श्रेष्ठ मानव समाज की नींव रखी।वे कहते थे-" जात-जात में जात है जो केलन में पात, रविदास मानुष ना जुड़ सके जो लों जात न जात।"
"जात-पात के फेर मंही,उरझि रह्यो सब लोग, मानवता को खात हैई रविदास जात का रोग।" उन्होंने हिंदू-मुसलमान धर्म की एकता पर बल दिया तो जातीवादी घृणित सोच एवं कट्टरता से छुटकारा दिलाया। वे एक महान् आदर्श समाज सुधारक थे।वे विनम्र श्रमजीवी ,सेवाभावी थे। उनका जीवन बहुत ही सीधा सरल, संतोषी और सदाचारी था। वे मानव समानता के प्रबल समर्थक, स्वाधीनता के पुजारी, अन्याय के विरोधी, स्वतंत्र चिंतक थे। उनकी वाणी में काव्य रूपी पीड़ा के दर्शन होते हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा एवं समाज सुधार में लगा दिया।
उनका जीवन बहुत ही सात्विक था। वे कर्म रूपी प्रतिमूर्ति थे। वे निर्धन रहकर भी नीतिवान बने रहे और जन-जन में ज्ञान की गंगा बहाते रहे। वे एक तार्किक एवं महान विचारक थे। सदा उन्होंने विवेक पर बल दिया। उन्होंने अपने उपदेशों को साधारण जनता की भाषा में दिया। उन्होंने अपनी ज्ञान वाणी से अन्याय पर प्रहार किया। संत रविदास एक उच्च कोटि के संत एवं सद्गुरु थे। वे सत्यवादी थे। उनका मानना था कि सत्य में पाप को नाश करने की शक्ति है। सत्य सभी में प्रधान है। किंतु आज के युग में सत्य गायब होता जा रहा है। उन्होंने मानव मात्र को एक समान दृष्टि से देखा। उन्होंने कहा था "मन चंगा तो कठौती में गंगा"।
उन्होंने पीड़ित एवं दूषित समाज को एक नई दिशा दी और मानवतावाद को पुष्पित करते हुए भटकती हुई जनता को नई राह दिखाते हुए कहा कि-"ऐसा चाहूं राज में जहां मिले सबन को अन्न। छोटे बड़े सब सम रहे रविदास रहे प्रसन्न।" इस तरह के समतावादी उच्च कोटि के विचार थे।
संत रविदास के 41 पद सिखों के पवित्र धर्म ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है। उन्होंने बेगमपुरा की कल्पना की थी। जिसमें ना किसी को गम हो, ना किसी को कष्ट हो ,नही कोई उच्च हो और नहीं कोई नीच हो। ना कोई बड़ा हो ना कोई छोटा हो।ना कोई गरीब होना कोई अमीर हो।
सभी का जीवन समान सुखी ,प्रसन्न हो। उनके उच्च कोटि के और दूरदर्शी विचार थे जिसे हम आज के युग में "स्मार्ट सिटी" एवं "स्मार्ट विलेज" की कल्पना कर रहे हैं। राजस्थान की लोकप्रिय भक्ति मति कवियत्री मीरा उनकी शिष्या थी। मीरा ने उनके बारे में कहा था -
"मेरो मन लाग्यो गुरु सों, अब ना रहूंगी अटकी।
गुरु मिल्या रैदासजी, मोहि दीनी ज्ञान की गुटकी।"
उस जमाने में उनके छोटे-बड़े 55 हिंदू शासक उनके शिष्य बने थे। मध्य काल के भक्तियुग में रामानंद जी के 12 शिष्यों में संत रविदास की श्रेष्ठता को स्वीकारते हुए संत कबीर ने कहा था-" संतनी में रैदास संत" जहां कबीर दास जी ने अपने तीखे स्वर में आक्रोश को व्यक्त किया वहां रविदास ने सहज, सरल और शांत भाव में तथा शिष्टाचार पूर्वक अपनी बात कही। उनके विचार जन- जन तक अधिक संख्या में न फैल पाने का कारण यह भी है कि उनकी शिष्य परंपरा कमजोर रही। जिसके कारण रविदास की लोकप्रियता घटी किंतु उनकी वाणी में मानवता का स्वर बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का है। उन्होंने मध्यकाल सामंतवादी परंपरा में जकड़े समाज को आजाद करने हेतु जोरदार वकालत की थी और कहा था-
"पराधीनता पाप है जानी लेहु रे मीत।
रविदास दास पराधीन सो कौन करे हैं प्रीत।।"
लगभग 650 वर्ष बीतने के बाद भी संत रविदास की प्रेरणा मनुष्य समाज को नई ऊर्जा शक्ति को भरती है। उनकी अमृत रूपी वाणी दिशाहीन मानव को सत मार्ग की ओर ले जाती हैं। वे आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है।
लेखकः डॉ. कान्ति लाल यादव
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