साहित्य चक्र

21 February 2022

साहेब! हम आपके लिए फ्री काम करेंगे।



साहेब पत्रकारिता की है और फ्री में काम करने के लिए तैयार भी हूॅं। 4 साल की डिग्री और 1 साल का डिप्लोमा लिया है। करीब ₹600000 खर्च किए हैं। इसके बावजूद भी कोई फ्री में काम कराने को तैयार ही नहीं है। साहेब आप हमें इंटर्नशिप करवा दीजिए। इंटर्नशिप से ही मैं अपने परिवार को पा लूंगा। मेरा परिवार थोड़ी ना है मुझे तो मीडिया का आई कार्ड चाहिए। अपने फेसबुक वॉल पर मुझे आपकी कंपनी का एंप्लॉय दिखना है। मैं दिन-रात या कहे 24 घंटे काम करने को तैयार हूं। सैलरी तो मुझे चाहिए ही नहीं, क्योंकि मैं इंसान नहीं हूं।







अरे शर्म करो मीडिया और पत्रकारिता के नाम पर अपनी दुकान चलाना बंद करो। कितने लोगों का और शोषण करोगे ? अगर औकात नहीं है यूट्यूब चैनल या न्यूज़ चैनल या मीडिया संस्थान या अखबार चलाने की तो फिर इसे बंद क्यों नहीं कर देते ? जो बच्चे 4 साल पढ़ाई और ₹4-600000 खर्च करके मीडिया की पढ़ाई करते हैं क्या वो बच्चे इंटर्नशिप करने के लायक भी नहीं हैं ?


एक बच्चा कितने महीने इंटर्नशिप करेगा मुझे यह बताइए ? 2 महीने या 6 महीने, मेरे अनुसार मीडिया का काम सिर्फ 1-2 महीने में सीखा जा सकता है चाहे वह पीसीआर का काम हो या एमसीआर का काम हो या आउटपुट का काम हो या फिर इनपुट का काम हो। हाॅं..! शब्दों की नॉलेज या शब्दकोश धीरे-धीरे ही बढ़ता है। आप सोचेंगे कि कोई इंसान 1 महीने में या 2 महीने में पूरे शब्दकोश को अपने दिमाग में रटा ले तो मुझे लगता कि यह संभव नहीं है।



पत्रकारिता का कोर्स करने से अच्छा है। दो ढाई लाख रुपए में आप अपना खुद का बिजनेस स्टार्ट करें। जितना आप 4 साल में पत्रकारिता का कोर्स करेंगे, उतना आप 4 साल में अपने बिजनेस में मास्टर बन जाएंगे। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पत्रकारिता में लगातार नौकरियां कम होती जा रही है। अगर नौकरियां है भी तो वह सिर्फ मीडिया संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों के रिश्तेदारों को ही मिलती हैं। या तो फिर खुद का यूट्यूब चैनल, फेसबुक पेज व सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफार्म पर मंच तैयार कीजिए। तभी आप अपने जीवन में कुछ कर पाएंगे अन्यथा मीडिया सेक्टर में जीवन को बेहतर बनाना बहुत कठिन और संघर्ष भरा है। आपको अपने जीवन में संघर्ष और कठिनाइयों से लगातार लड़ना है तो मैं आपको सिर्फ इतना ही कहूंगा कि आप पत्रकारिता कर लीजिए। 



नोट- मेरा इस आर्टिकल के माध्यम से किसी का मनोबल तोड़ने का मकसद नहीं है। बस मीडिया संस्थानों की हकीकत और मीडिया कर्मियों के हालात बताना है।



                                                             लेखकः दीपक कोहली


No comments:

Post a Comment