अधिकारों की आंच में बेदम होता दायित्व, उम्मीद ही एकमात्र सहारा
आज हम हर तरफ देखते है कि हर कोई व्यक्ति अपनी आमदनी और औकात बढ़ाने में लगा है। हर कोई व्यक्ति अपनी शक्ति और सामर्थ्य से अधिक से अधिक अधिकारों का सेवन करने में लगा है। जिसके सहारे वह अधिकांश मामलों में धन-दौलत, सत्ता-शक्ति, वैभव-शौहरत आदि-आदि को प्राप्त करना चाहता है। ऐसा भी नहीं है कि इस दिखावे और भोगवादी दौर में ईमानदार व दायित्व-बोध वाले व्यक्ति नहीं है। लेकिन ऐसे दायित्व-बोध वाले लोगों की संख्या दिनों-दिन घटती जा रही है तथा वर्तमान की अंधी-दौड़ में ना तो उनकी छवि जन तक पहुंच रही है और न हीं उनकी प्रेरणादायी व प्रभावी वाणी। दायित्व-बोध से कोसों दूर हो रहे इस दौर में हर कोई अधिक से अधिक सुख-सुविधा, ऐशो-आराम, बेहिसाब सम्पति की चाह रखता है और वह अंधा होकर उस पूर्ति में दिन-रात लगा रहता है।
अब ऐसा लगा रहा है कि समाज में हर प्रकार की व्यवस्था में ईमानदारी, सच्चाई, दायित्व, निष्ठा जैसे आदर्श धीरे-धीरे घटते जा रहे। हमारे राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा सहित तमाम व्यवस्थाओं और महकमों में लगे एवं पहुंचे लोग स्वयं को सुरक्षित मान अपने दायित्वों को भूलते जा रहे हैं तथा अपने पद व रसूख के सहारे चांदी कूटने में लगे हैं।
भ्रष्टाचार, बेईमानी, धोखाधड़ी जैसे शब्द आज हमारे जीवन में आम होते जा रहे हैं। राजनीति में लोकतंत्र के सहारे जनता द्वारा जनता के लिए चुने गए नुमाइंदे तो ऐसा लगता है कि वे अपने दायित्व-बोध को भूल ही चुके हैं। अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपनों को दे, जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसे मुहावरों को रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनाते जा रहे हैं। वर्तमान में अधिकारों की आंच में दायित्व सच में बेदम होता जा रहा है। हर तरफ मात्र अधिकारों को लेकर लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फसाद है। ठीक इसके उल्ट देखे तो दायित्व को लेकर आज दिन तक एक भी झण्डा हवा में नही लहराया। सबको अधिकारों की पड़ी है। दायित्व से किसी को कोई लेन-देन नही है।
अब शायद यही लगता है कि अपने दायित्व को अपना लक्ष्य बनाने वाले व्यक्ति कम होते जा रहे हैं या यूं कहें कि दायित्व-बोध वाला दौर हम से काफी दूर जा चुका है। लेकिन इस बात की उम्मीद भी बेमानी नहीं होगी कि हम सब में अपनी-अपनी स्थिति एवं व्यवस्थाओं के अनुरूप कभी ना कभी दायित्व का बोध होगा तथा पुनः वह स्वर्णिम दौर लौटेगा जिसमें हम सब भ्रष्टतंत्र से दूर होकर आजादी के दीवानों व सेनानियों की कल्पना के अनुरूप जन-जन का भला कर सकेंगे तथा स्वयं को हर आईने में बेझिझक देख सकेंगे। हम सब में फिर से अधिकारों के उस पार दायित्व का बोध जगेगा और हम दायित्ववान बनेंगें। यही एकमात्र उम्मीद सुनहरे सवेरा की सुनहरी किरण है।
लेखकः मुकेश बोहरा अमन
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