मेरा प्यारा हिमाल, तू कितना विशाल।
मेघों को भी तुम देते हो रोक।
चाहे मॉनसून हो या पश्चिम विक्षोभ।।
मस्तक पर तेरे सूंदर पामीर का है पठार,
जिसे कहते दुनिया की छत है।
तभी तुझ में समाये मनमोहक भू-दृश्य और हिमनद है।।
सिंह की तरह हमेशा तू खड़ा है,
दुश्मन से भी तू हमारे लिए लड़ा है।
हम तो करते तुझसे बढ़ी प्रीत,
क्योंकि मंत्रमुग्ध करता हमें झरनों व
नदियों से निकलता मधुर संगीत।।
यहीं शिव की जटा, माँ गंगा का वास।
भगवान विष्णु ने भी बद्री को बनाया अपना है निवास।।
अरे हिमाल पर तेरी भी क्या तकदीर है।
आज सह रहा तू कितने असहनीय पीर है।।
बढ़ता शहरीकरण, बांध, सुरंगों,
सड़कों का अव्यवस्थित जाल।
जिसने बदली है तेरी चाल।।
कितनी आपदाये झेल रहा यह मेरा हिमाल।
कलकल बहती नदियां भी आज हो चुकी बेहाल।।
केदारनाथ की बाढ़, ऋषिगंगा या सतपुली की हो मार।
झेल रहा कितना दर्द यह मेरा प्यारा हिमाल।।
संभल जा रे इंसान! रख तू इसका ख्याल,
आने वाले विनाश को समय रहते तू भांप।
न बना इसे बाढ़, भूस्खलन जैसी आपदाओ का घर।।
छोड़ दे जिद शहरीकरण की,
मत पर विकास की अंधी दौड़ में।
वरना बचा नही पायेगा अपना ठौर।।
और नही अब इसको सहना।
ऐ इंसान तू संभल के रहना, ऐ इंसान तू संभल के रहना।।
लेखक- डॉ० ललित मोहन जोशी
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