साहित्य चक्र

07 September 2020

स्वर्णकाल बना दूँ मैैं



हे केशव! 
संशययुक्त हूँ 
निशक्त और शिथिल पड़ चुकी हूँ मैं 
वृक्ष से गिर चुके किसी पर्ण की भांति... 

हाँ, तक़ाज़ों से मुक्त नहीं हुई हूँ अभी... 

पर सुख के संधान हेतु 
नहीं चुन पाऊंगी मैं अष्टांगी मार्ग... 

कैसा हो यदि रसायनज्ञ बना दो तुम मुझे 
तरल मुस्कान को डीकैंट कर लूंगी जीवन से 
अपनी सघनता के कारण 
पात्र की तली पर जम जाएंगी सभी पीड़ाएं...

या कोई पुरातत्ववेत्ता ही 
गहरी खुदाई के बाद निकली किसी सुराही पर 
हाथ फेर कर मैं पहचान लूंगी 
बनाने वाले उन हाथों की गर्मास को 
मिलन कुछ यूँ भी तो होता है सभ्यताओं का... 

शायर बना दो मुझे मेरे ईश!
कि ज़िन्दगी रहते ज़िन्दा महसूस करें लोग 
ऐसी इल्म भरी कुछ नज़्में लिख जाऊँ... 

पर्वतारोही ही बन जाऊं या फिर 
शिखर पर पहुँच पाने की 
अपनी क्रांतिकारी योजना को 
अंजाम दे पाऊँ जीते जी... 

केवल इतनी ऊर्जा दे दो मुझे 
कि इन बचे हुए क्षणों को 
अपने जीवन का 
स्वर्णकाल बना दूँ मैैं ...

--मीनाक्षी

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