साहित्य चक्र

04 September 2020

अपने राग




सब अपनी अपनी
सबकी अपनी ढपली है/
सबके अपने राग है..

आलाप जरूरी है
भले ही हो जाये
लय भंग/राग विद्वेष !

संगीत के नाम पर
कर्कश कोलाहल/
पर हमें इससे क्या..

हमारी ढपली हमारा राग !
हम भोर की प्रतीक्षा में हैं/
प्रतीक्षा में हैं कि
एक दिन
अवश्य निकलेगा सूरज
बादलों को चीरता हुआ
अंधकार को मात देगा/

और कण कण में
व्यापक होगा सवेरा
इस बात से बेपरवाह कि
हमने पीठ मोड़ी हुई है
पूर्व दिशा से/

मुख पश्चिम की ओर है..
फिर भी हम प्रतीक्षा में हैं..!

हमें सौंपी गई है/
या थोपी गई है
अंधेरे को भगाने वाली लालटेन
मगर तेल गायब है ! !

तेल के लिए हम
फिर से हैं
कतारबद्ध/
एक के पीछे एक
जैसे भेड़ों का समूह..!

हमें चुनना था
बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट
अतीत के प्रांगण से/
हमनें चुन लिया
वेस्ट आउट ऑफ वेस्ट
पश्चिम के गलियारे से
अब उठती है सड़ांध
दोष किसे दें !

पर नहीं उठते सवाल/
आज भी अटके हैं
अधर बीच में..
पीढियां गुजर गई
सीढ़िया नहीं बन पाई
मगर निर्माण जारी है..!

हमें जल्दी है
बहुत जल्दी..
न जाने कहाँ जाने की !
सबको धकेलते हुए जाना है..
बहुत दूर/
बहुत ऊपर
शिखर फतह करना है..

भले ही छाई हो/
मन के पहाड़ों पर
फिसलन भरी काई..!

मगर जाना है
क्योंकि सब जा रहे हैं/
अपने अपने झंडे लिए..!

अल्पना नागर


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